शहर से करीब 130 किमी दूर बेतवा नदीं के किनारे बसे ओरछा में भगवान राम को राजा की तरह आज भी पूजा जाता है। वहां आज भी मप्र पुलिस के जवान रामराजा को दिन में सलामी देते हैं। देखने पर राजमहल जैसे लगने वाले मंदिर में रखी रामराजा की मूर्ति के लिए चतुर्भुज मंदिर बनाया जा रहा था, लेकिन कुछ समय के लिए भगवान राम की मूर्ति को महल में रखा गया। उसके बाद कोई इस मूर्ति को हिला नहीं सका। यहां का इतिहास 8वीं शताब्दी से शुरू होता है। ग्वालियर से पर्यटक बड़ी संख्या में यहां पहुंचते हैं।
1 Orchha Ram Raja Sarkar – ओरछा की पहली और सबसे रोचक कहानी एक मंदिर की है। दरअसल, यह मंदिर भगवान राम की मूर्ति के लिए बनवाया गया था। इस मूर्ति को मधुकर शाह के राज्यकाल (1554-92) के दौरान उनकी रानी गनेश कुंवर अयोध्या से लाई थीं। चतुर्भुज मंदिर बनने से पहले इसे कुछ समय के लिए महल में स्थापित किया गया, लेकिन मंदिर बनने के बाद कोई भी मूर्ति को हिला नहीं पाया। इसे चमत्कार मानते हुए महल को मंदिर का रूप दिया गया और इसका नाम रखा गया राम राजा मंदिर। आज इस महल के चारों ओर शहर बसा है और रामनवमी पर यहां हजारों श्रद्धालु इकट्ठा होते हैं।
2 ओरछा के एक बगीचे में दो मीनार (वायु यंत्र) बनी हुई हैं। स्थानीय लोग और वहां पहुंचने वाले दोनों मीनारों को सावन-भादो कहते हैं। इनके बारे में किवदंती है कि सावन के महीने के खत्म होने और भादो मास शुरू होने के समय दोनों स्तंभ आपस में जुड़ जाते हैं। इन मीनारों के नीचे सुरंगें बनी हुई हैं, जो राजपरिवार के आने-जाने के लिए हुआ करती थीं।
3 बादशाह अकबर ने अबुल फजल को शहजादे सलीम (जहांगीर) को काबू में करने के लिए भेजा था। सलीम ने वीरसिंह की मदद से उसका कत्ल करवा दिया। इससे खुश होकर सलीम ने ओरछा की कमान वीरसिंह को सौंप दी। वैसे ये महल बुंदेलों की वास्तुशिल्प का प्रमाण है। यहां चार महल जिनमें जहांगीर महल, राजमहल, शीश महल और राय प्रवीन महल बने हुए हैं। खुले गलियारे, पत्थरों वाली जाली का काम, जानवरों की मूर्तियां, बेलबूटे जैसी तमाम बुंदेला वास्तुशिल्प की विशेषताएं यहां साफ देखी जा सकती हैं।
4 ओरछा का इतिहास कहानियों से अटा पड़ा है। इन्हीं में से एक हरदौल की कहानी आज भी बुंदेलखंड में प्रसिद्ध है। वहां के लोक कलाकार हरदौल की कहानी को अपने ही ढंग से प्रस्तुत करते हैं। हरदौल की कहानी जुझार सिंह (1627-34) के राज्य काल की है। दरअसल, मुगल जासूसों की साजिश भरी कथाओं के कारण राजा को शक हो गया था कि उसकी रानी से उसके भाई हरदौल के साथ संबंध हैं। राजा ने रानी के हाथों अपने भाई हरदौल को मारने को कहा, लेकिन रानी ऐसा नहीं कर पाई। हरदौल को जब पता चला, तो उन्होंने खुद को निर्दोष साबित करने के लिए जहर पी लिया और त्याग की नई मिसाल कायम की।
ओरछा की कहानी वहां के इतिहासकरो की जुबानी, Orchha Ram Mandir Story
Orchha ka itihaas – कुछ इतिहासकार कहते हैं कि राजा मधुकरशाह कृष्ण भक्त थे । एक बार उन्होने रानी गणेश कुँवरी को कृष्ण उपासना के लिए वृंदावन चलने को कहा । अब मधुकर शाह तो कृष्ण भक्त थे परंतु उनकी रानी गणेश कुंवरी तो रामभक्त थी । रानी ने मना करते हुए राम उपासना के लिए अयोध्या जाने की बात कही । जिससे दोनो में काफी बहस हुई और इस पर मधुकरशाह गुस्सा हो गए और रानी को महल छोड़ने का आदेश दिया और साथ ही कहा कि वे ओरछा वापस तभी आएँ जब राम उनके साथ आना चाहें । इस पर रानी गणेश कुँवरी अयोध्या चली जाती हैं और सरयू के किनारे भगवान श्रीराम जी की उपासना करने लगती हैं । काफी समय तपस्या के बाद भी इच्छा पूरी ना होते देख रानी सरयू की मंझधार में छलांग लगा देती हैं । रानी को प्रभु राम डूबने से बचाते हैं तो रानी गणेश कुँवरी कहती है कि प्रभु मेरी लाज रखने के लिए मेरे साथ ओरछा चलिए । श्रीराम जी ने रानी जूँ ( जूँ शायद बुंदेलखंडी में जी के लिए प्रयुक्त होता है ) को साथ चलने की सहमति प्रदान करते हैं परंतु रानी के सामने कुछ शर्तें रखते हैं । पहली ये कि उन्हें पैदल ओरछा पहुँचना है और दूसरी ये कि वो जहाँ एक बार स्थापित हो जाऐंगे फिर अपने स्थान से नहीं हिलेंगे ।
रानी सहर्ष बात मान लेती हैं और ओरछा पहुँचती है । रानी के वासप पहुँचने पर महाराज मधुकरशाह बहुत प्रसन्न होते हैं और उनका वहां भव्य स्वागत करते है और कहते है कि श्रीराम जी के लिए ओरछा में भव्य मंदिर का निर्माण करवाया जाएगा । और दोस्तों ये मंदिर था चतुर्भुज मंदिर । चतुर्भुज मंदिर का निर्माण शुरू हो जाता है तब तक श्रीराम जी की मूर्ति को रानी अपने महल में रखती हैं । कहा जाता है जब चतुर्भुज मंदिर में स्थापना के लिए भगवान राम की मूर्ति को उठाया जाने लगा तो कोई उसे हिला नहीं पाया तब सबको राम जी की शर्त याद आती है कि वो जब एक जगह विराजमान जाऐंगे तो वो फिर वो वहीं रहेंगे । तब चतुर्भज मंदिर की जगह महल को ही मंदिर का रूप दे दिया गया । महल में होने के कारण भगवान को राजा कहा गया और महल को रामराजा मंदिर । कुछ समय पश्चात चतुर्भुज मंदिर में भगवान विष्णु जी की मूर्ति को स्थापित किया गया । चार भुजाओं वाले विष्णु को समर्पित होने के कारण इसे चतुर्भुज मंदिर कहा जाता है ।