मसाला वाटिका से धरेलू उपचार
Masala ke Upyog मसाला से धरेलू उपचार – भोजन के समय दाल , शाक आदि में मिलाए जाने वाले मसालों में से अधिकाशं
ऐसे होते हैं , जिनमें किसी न किसी रेाग के निवारण की क्षमता भी हैं। कई मसालों को एक साथ मिला देने पर उनसे रूचिकर स्वाद बनता हैं , पर औषधि की
दृष्टि से उस सम्मिक्षण का प्रभाव गुणहीन हो जाता हैं । ऐसे स्थिति में वह औषिध
के स्थान पर प्रयोग करने योग्य भी नहीं रह जाते ।
मसालों केा सामान्यतया स्वादवर्धक एंव पाचक माना जाता हैं । उनका आम प्रयोग –प्रचलन इसी रूप में हैं , पर उन्हें निरापद धरेलू चिकित्सा
के रूप में भी प्रयुक्त किया जा सकता हैं ।
इन सब का विभिन्न रेागों में प्रयोग गुण –धर्म लगाने या प्राप्ति की विधि
, मात्रा एंव अनुपान का संक्षिप्त वर्णन यहॉं प्रस्तुत हैं ।
(1) राई – सरसेां की बिरादरी में ही इसकी गणना होती हैं । इसका दाना छोटा और काला होता हैं । तेल भी कम निकलता है, इसलिए तिलहन विक्राताओं के यहॉं यह नहीं मिलती । उसे पंसारी ही बेचते हैं, क्येाकि उनका प्रमुख उपयोग मसाले की तरहा होता हैं । इसकी दाल पीस ली जाए ,फिर पानी में डाला जाए ,तो
पानी ,खटटा हो जाता हैं । कांजी –बडे मूँग –उड़द दाल से बनते
हैं ,पर उन्हें राई के पानी में फुलया और साथ –साथ खाया जाता हैं।
राई का प्रमुख गुण पाचक हैं । खटाई पैदा करने का गुण होने से यह स्वादिष्ट भी हैं। पेट में नन्हें कीडें पड़ जाने पर इसके पानी से कीड़े मर जाते हैं हैजे में राई पीस कर पेट पर लेप करने से उदरशूल व मरोड़ में आराम मिलता हैं ।सभी अचारों में राई डाली जाती हैं । उससे वे सड़ते भर नहीं और ,खटाई लिए हुए
अपना स्वाद भी बनाए रहते हैं । इसी प्रकार दाल-शाक में अन्य मसालों के साथ इसका भी उपयोग होता हैं ।
दर्द या सूजन मिटाने का उसमें गूण हैं । इसकी पुल्टिस बनाकर यदि दर्द वाली जगह में सेक किया जाए , तो तुरंत राहत मिलता हैं । बाहेापचार में राई का
लेप सूजन कम करने वाला माना जाता हैं। गरम पानी में राई डालकर सहने योग्य
तापमान तक बना लिया जाए ,इतने में राई फूल जाती है और पानी में उसका असर हो जाता हैं । इस पानी को किसी टब में कमर की ऊॅचाई तक भरा जाएं और उसमें टबवाथ की तरहा बैठा जाए तो प्रदार , प्रमेह आदि यौन रोगों के सुधार में इसका बहुत अच्छा प्रतिफल निकलता हैं ।
राई या सरसों के तेल , में बारीक नमक मिलाकर ,उनसे मंजन का काम लिया जाए , तो दॉंतो तथा मसूढ़ो की मजबूती व सफाई होती रहती हैं।
विष विकार में चूर्ण एक से दो चम्मच की मात्रा में दिया जाता हैं । ताकि वमन के द्वारा विष बाहर निकाल जाए । राई का औषध प्रयोजन हेतू कम मात्रा में उपयोग ही लाभकारी हैं। इसे पीसकर शहद में मिलाकर सूधँने या तेल सूधने से
मिर्गी – मूर्छा दूर होती हैं । कान के फेाड़े फुन्सी व बहरेपन में राई का तेल कान
डालते हैं। राई पीस कर अरण्डी के पतों में चुपड़ कर जोड़ो पर लगाने से सधियो की सूजन मिटती हैं।
राई अग्निदीपक ,पाचक ,उतेजक ,एंव पसीना लाने वाली बडी़ गुणकारी औषधि हैं।
(2) हल्दी – इसका आकार भी अदरक जैसा होता हैं। पैाधे की एक –एक फुट की
चौड़ी पतियों होती हैं । पीले रंग के फूल वर्षा के दिनों में बड़े सूहावने लगते हैं।
हल्दी के चूर्ण का उबटन किया जाता हैं। दाल शाक को पीला रंग देने के लिए हल्दी डालना शोभा भी बढ़ाता हैं। , सुगंध भी देता हैं । और गुणकारी भी होता हैं।
खाज , खुजली ,फुन्सी आदि में उसका सेवन उपयोग रहता हैं। गहरी चोट लग जाने पर हल्दी की पुल्टिस बनाकर सूजन ,दर्द एंव चोट वाले स्थानों की सिकाई की जाती हैं। हल्दी रक्त शोधक भी हैं। शरीर पर फुन्सियॉं उठने ,चकते जैसी पिती
उछलने में हल्दी को शहद के साथ मिलाकर चाटते रहने की प्रथा हैं। पेट में कृमि पड़ने पर हल्दी का क्वाथ बनाकर पिलाया जाता हैं। खॉंसी आने पर हल्दी के टुकड़े
मुँह में पड़े रहने दिए जाऍं उन्हें और धीरे –धीरे चूसते रहा जाए , तेा लाभ होता हैं। जुकाम , सर्दी ,सिर दर्द में गर्म दूध के साथ उसके उपयोग से बहुत लाभ होती हैं ।
आयुर्वेद के अनुसार हल्दी उष्ण , सौदर्य बढा़ने वाली ,रक्तशोधक कफ – वात नाशक ,पित शामक एंव लीवर के लिए उतेजक मानी गई हैं। सर्दी लगाने पर
हल्दी गुनगुने जल के साथ लेने से बलगम निकलता व सिर हल्का होता हैं । मूत्र
रोगों में इसका काढा़ बहुत आराम देता हैं। ऑंखों के दुखने पर एक तोला हल्दी ,एक पाव पानी में ओंटकर कपड़े से छानकर ऑंखों में टपकाते हैं। तो लाली जल्दी
मिटाती हैं। प्रमेह में हल्दी के चूर्ण को ऑंवले के रस के साथ देते हैं । इसकी प्रयोग मात्रा किसी भी रोग में दो माशे से अधिक नहीं होनी चाहिए । अनुपान प्राय: गुनगुना जल ,दूध या मधु होता हैं।
बाजार हल्दी में ऊपर से नकली रंग पेाता जाता हैं। , ताकि ग्राहक के
आकर्षक लगे ,पर यह रंग हानिकारक पाए गए हैं। इसलिए बिना रंग
की हुई हल्दी
प्राकृतिक रूप में लेनी चाहिए । पिसी हल्दी में पीली मिटटी मिलाकर उसका
वजन भारी कर दिया जाता है। इस प्रकार के मिश्रण खाने वाले को अनेक
प्रकार की हानियॉं पहुँचती हैं। इसलिए धर उगाई और पीसी गर्इ हल्दी का उपयेाग ही उचित हैं।
(3) अदरक – अदरक गीली गाँठ हैं। , जो जमीकन्द की तरह जमीन में गढ़ी-गढ़ी
बढ़ती रहती हैं। उसमें से जितनी आवश्यकता हैं।, काटकर शेष भागा को फिर जमीन में गाड़ा और भविष्य के लिए बढते रहने दिया जाता हैं। यही अदरक जब सुखा लिया जाता हैं। तब सेांठ बन जाता हैं। बोने के लिए इसके टुकडे़ काट-काट
कर ही गाढ़ दिए जाते हैं। इसमें बीज नहीं होता ।
अदरक पाचक हैं। पेट में कब्ज ,गैस बनना ,बमन ,खॉंसी ,कफ ,जुकाम
आदि में इसे काम में लाया जाता हैं। नमक मिली चटनी बनाकर चाटते रहने , बारीक न पीस सके , टुकड़े मुँह में डालकर चूसते रहने से लाभ होता हैं। बच्चों के
लिए रस के में प्रयुक्त किया जा सकता हैं ।अदरक का रस और मिलाकर चाटती
रहने से दमा , श्वॉंस ,खॉंसी से लेकर क्षय रोग तक में सुधार होता हैं। हिचकी ,जमुहाई का अनुपात बढ़ जाए । तो भी इसका प्रयोग किया जा सकता हैं। दाढ़ के
दर्द में भी इसका सेवन उपयोगी हैं।
अदरक और सोंठ के गुण एक जैसी होते हैं, पर जब चूर्ण में उसका प्रयोग करना हो , तेा सेांठ लेना ही उपयुक्त हैं। उसमें अदरक की तरह बार-बार पीसने का झंझट नहीं रहता ।
अदरक भोजन के कुछ पूर्व लेने से अग्नि प्रदीप्त करती हैं। भूख बढाती हैं। इसमें दोनो गुण हैं।, ऑंतों की प्रवाही स्थित में ग्राही भी हैं। एवं कब्जियत को भेदने का गुण भी इसमें हैं। यह आयुर्वेद के सुप्रसिद्व योग त्रिकुटा (सेांठ,मिर्च,पिप्पली) का एक प्रधान अंग हैं। अदरक का ताजा रस मूत्र निरस्तारक (डायुरेटिक) औषधि माना गाया हैं।
विषम ज्वर में भी दुग्ध के साथ डेढ़ माशे की मात्रा में ,ह्रदय रोग में कुनकुने क्वाथ के रूप में ,हिचकी में ऑंवला व पीपल का चूर्ण शहद से साथ ,पक्षाधात में सेंधा नमक के साथ महीन पीस कर सूघाने के रूप में , अजीर्ण में धनिए के साथ क्वाथ बनाकर ,सग्रहणी (डिसेन्ट्र्री)ल्दी ंद्उबटन किया जाता हैंद्य k k kkkkkkkkkkkkkk में कच्चे बेल का गूदा ,अदरक ,एवं गुड़ मिलाकर मटढे के साथ पीने से तथा सोंठ और गोखरू का क्वाथ प्रात: पीने व कमर के दर्द में आराम पहुँचता हैं।
(4) सौफ – सौफ शीतल प्रकृति की औषधि हैं। उसके फल जीरे से मिलते जुलते हैं। उन्हीं को काम में लाया जाता हैं। पान,सुपारी,इलायची, की जगह सौफ केा अतिथि सत्कार के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए । गर्मी के दिनों में ठडांई
पीने का प्रचालन हैं। उसमें सौफ प्रमुख हैं। उसकी मात्रा भी अधिक रखी जाती हैं।
स्वाद में मीठी और सुगंधित होने के कारण वह सर्वप्रिय भी हैं। सस्ती भी ।
जिन रोगों में गर्मी की अधिकता का प्रभाव दृष्टिगोचर होती हो, उसमे सॉंफ का प्रयोग बेखटके किया जाता हैं। डंठलो के तिनके जैसे प्राय: जुड़े रहते हैं। ,
उन्हें हटाने के लिए उनकी धुलाई –मजाई की जा सकती हैं। हथेलियों से भी रगडा़ जा सकता हैं। तवे पर हल्दी आग से भून लेने पर भी जुड़े हुए तिनके अलग हो।
इतना कर लेने पर सौंफ का उपयोग थोंडी –थेाड़ी मात्रा में मुँह में डालते हुए पान
की तरहा चबाकर किया जा सकता हैं। सिल पर चटनी की तरह बारीक पीसकर शहद या चीनी के साथ मिलाकर चाटा जा सकता हैं। सौंफ केा बारीक कूटकर उसे
पानी में भिगोया जाए , ऊपर से पानी निथारते रहा जाए । पानी सुखाकर अंत में
जो गाढ़ा सा तलछट बच जाए , उसे सुखा लिया जाए ,यही सौंफ का सत हैं। इसी
प्रकार गिलोय आदि का भी सत् निकालते हैं। , सत्व को हमेशा कम मात्रा में लेते हैं।
आयुर्वेदिक मत से सौफ चरपरी अग्निप्रदीपक ,वात ,ज्वर एवं शूलनाशक तथा तृष्णा , वमन को शांत कर देने वाली औषधि हैं। वह पेशाव की जलन कम करती
हैं। यह ऑंतो की मरोड़ शांत करती हैं। एवं श्रेष्ट अम्ल ,पित नाशक हैं। सौफ को धी में तला जाए व मिश्री के साथ मिलाकर लिया जाए ,तो अतिसार (डायरिया) मिटता हैं। बेल के गूदे के साथ चूर्ण खाने से अजीर्ण मिटता हैं। सौंफ के बीज गुलाब के फूल ,कमल गटटे की मगज ,चंदन चूर्ण , खस ,कालीमिर्च ,छेाटी इलायची ,खरवूजे का बीज व वादाम आदि में से जो उपलव्ध हो , उन्हें मिलाकर
पीसकर ठंडाई वनाई जाती हैं। ,जो मेधावर्धक भी हैं। एवं लू ,पित ,ज्वर ,हैजा,दस्त
दमन की श्रेष्ठ औषधि भी ।
(5) मेथी –मेधी के पते का तेा अच्छा शाक या सूखी भुजिया बनती हैं। किंतू उसके बीज मसाले के काम आते हैं। भिगाने से वे फूल जाते छिलका उतारने पर
कड़वाहट तो कम हो जाती हैं। किंतु साथ ही गुण भी कम हो जाते हैं। इतने पर भी उसका गर्मी प्रथाम गुण छिलके सहित या छिलके रहित स्थिति में अपना काम करता हैं। मेथी के बीजों की पतली दाल ,तली हुई भुजिया बन सकती हैं। धी शक्कर के साथ उसके लउ़डू भी बन सकते हैं। औषधि प्रयोग में उसके बीजों का चूर्ण काम में लिया जा सकता हैं। ऐसा भी हो सकता हैं। कि उबाल-छानकर उसके
पानी को गुनगुनी स्थिति में पिया जाए ।
मेधी गाठिया जैसे रोगों में विशेष रूप से काम आती हैं। जकड़न सूजन में भी उससे लाभ होता हैं। जुकाम – सर्दी के अतिरिक्त बहुमूत्र जैसे रोगों पर भी उससे अकुंश लगता हैं। भूख खुलती हैं। और अपच दूर होता हैं। मेथी में जनवरी –मार्च में पुष्प फल लगाते हैं। छाटी मेंथी का उपयोग ही शाक -सब्जी में होता हैं।
मेंथी आयुर्वेद के मतानुसार मूलता: वात नाशक हैं। नाडि़येा की दुर्बलता में भी इसका प्रयोग करते हैं। प्रसव के वाद स्तनो से दूध आने व हारमोन्स की नियमितता के लिए मेथी मोदक खिलाने का प्रावधान भारतीय परिवारों में हैं। दुर्वलता ,शरीर में पीडा़ , थकान में यह टॉंनिक का काम करती हैं। मेथी का पंचाग
भी प्रयुक्त होता हैं। एवं बीज चूर्ण भी । 1 से 3 ग्राम की मात्रा में बीजों से सब्जियेां में छेांक देते थे । मेंथी –दाने की सब्जी को लोग बड़े शौक से खाते हैं।
(6) जीरा – जीरा पाचक और सुगंधित हैं। अरूचि , पेट फूलना , अपच आदि को दूर करने में उसका अछछा प्रभाव देखा गया हैं। भुने हुए जीरे की सगंध
सूँधते रहने से जुकाम की छीके आना बंद होता हैं। रूका हुआ जुकाम खुल जाता हैं। प्रसूति के उपरांत सेवन करने से गर्भशय का कचरा साफ हो जाता हैं। साथ ही
स्तनेा में दूध भी ब्ड़ी मात्रा में उतरता हैं।
मुखमार्जन में जीरे का अपना उपयोग है। भुना जीरा भेाजन के उपरांत थोड़ी
मात्रा में मुँह में डाल लिया जाए , तेा पाचक स्त्राव बहना आरंभ हो जाते हैं। और भोजन के समय की गई जल्दवाजी से भोजन में मुख स्त्रावों की कमी रह जाती हैं। उसकी पूर्ति होती हैां जीरे की प्रकृति गरम हैं, इसलिए उसे गरम मसालों प्रयुक्त किया जाता हैं। जीरा वमन ला सकता हैं और पतले दस्त में गाढा़पन आ जाता हैं।
आयुर्वेदिक मतानुसार जीरा गरम ,रूचि बढा़ने वाला , अग्निदीपक ,विषनाशक
एवं पेंट के अफारे केा दूर करने वाला हैां जठराग्नि केा प्रदीप्त करने के आलावा यह कृमि नाशक हैं। एवं ज्वर निवारक भी । जीर्ण ज्वर में यह लाभ देता हैां जीरे
केा उबाल कर उस पानी में स्नान करने से खुजली मिटती हैं। बवासीर में इसे मिश्री के साथ मुखमार्ग से देने व पानी के साथ पीसकर मस्सों में लेप करने से शांन्ति मिलती हैां पथरी व जननेन्द्रिय के रोगों में भी उसका मिश्री की चासनी के साथ सेवन किया जाता हैां हजरे व नमक को पीसकर धी व शहद में मिलाकर थोडा़ गरम करके बिच्छू के डंक पर लगाने के विष उतर जाता हैं। जीरे का चूर्ण दही में मिलाकर खिलाने से अतिसार मिटता हैां प्रयोग हेतू मात्रा ,बीज चूर्ण 4से6
ग्राम या मधु रोगों के अनुरूप निर्धारित किया जाता हैं।
(7) मिर्च – मिर्चो की दो जातियॉं प्रधान रूप से पाई जाती हैां एक काली मिर्च ,दूसरी हरी मिर्च । हरी मिर्च पक जाने पर पौंधे पर ही लाल हो जाती
हैां और सुखाने पर तो उसका रंग लाल हे ही जाता हैां
काली मिर्च मँहगी भी हैां और उसे उसे हर जगह उगाया नहीं जा सकता । उसके लिए उपयुक्त मौसम और फसल होनी चाहिए । इसलिए इतने झंझट में न पड़कर जिन्हें जरूरत पड़ती हैं। वाजार से ही खरीद लेते हैां
गरम मसाले का दाल – शाकों में ऊपर से बुरकने भी रिवाज हैं। उसमें लौंग ,काली मिर्च ,पीपल ,तेजपात्र,दालचीनी हींग ,धनिया जीरा आदि का प्रयोग होता हैां ,पर उनके उगाने में बहुत झंझट हैां इसलिए उन्हैं भी किसी प्रामाणिक दुकान से खरीद कर आवश्यकतानुसार काम चलाना चाहिए । इनकी प्रयोग विधि का वर्णन भी आगे किया गया हैां सुलभ उत्पादन में हरी मिर्च काम आती हैं। वह
भी मध्यम स्तर की होनी चाहिए । एक छोटी आकार की मिर्च अत्यंत कड़वी होती
हैं। एक छोटे बैंगन या करेले के आकार की होती हैं। उसे शाक की तरह प्रयुक्त किया जाता हैं। औषधि वर्ग में तो मध्यवर्ती हरी मिर्च ही काम में लाई जाती हैं।
मिर्च का स्वाद चटपटा और गुण दाहकारक हैं। जलन उत्पन्न करने के लिए
जहॉं भी उसकी आवश्यकता समझी जाती हैं। ,वहॉं प्रयोग कर लिया जाता हैं। छोटी –छोटी फुन्सियों उठने पर उन पर लेप देने से वे जल जाती हैं। खाज ,खुजली के लिए मिर्च को तेल में जलाकर उसकी मालिश की जाती हैं। जोड़ो के दर्द में भी उसकी मालिश की जाती हैं। जोडो़ के दर्द में भी उसकी मालिश की जाती हैं। कुते
के काट लेने या बर्र ,ततैया आदि के डंक मार देने पर मिर्च पीस कर लगा देने उठ
जाते ,उन पर भी मिर्च पीसकर लगाने से काम चल जाता हैं।
हरी मिर्च कम मात्रा में ली जानी चाहिए । वैसे कम मात्रा में यह अग्नि दीपक हैं। ,इसलिए छैाक आदि में इसका प्रयोग धरों में होता हैं। थेाड़ी मात्रा बढने
पर अम्ल पित का कारण बन जाती हैं।
(8) पुदीना – पुदीना का स्वाद और सु्गंध प्रसिद्व हैं। वह घास कि तरह किसी भी क्यारी में उपजाया जा सकता हैं। कुछ महीनों को छ़ेाडकर वह सदा हरा
रहता हैं। उसमें एक विशिष्ट गंघ आती हैां जेा इसके तैलीय सत्व के कारण होती हैं।,जिससे पिपरमेन्ट बनती हैं। पुदीना का रायता , पुदीने की चाटनी का प्रचलन
प्रसिद्व हैं।
पुदीना का गुण शीतल हैं। उसे लू लगने ,सिर दर्द होने जैसी परिस्थितियो में
ठंडाई की तरह बनाकर पिया जा सकता हैं। मॅूंह के छाले या मसूड़े के दर्द में उसे
गरम पानी में मिलाकर कुल्ले करने से आराम मिलता हैं। यह मुख दुर्गन्ध नाशक
भी हैां जिन दिनों हरा पुदीना नहीं मिलता ,उन दिनेा सूखे पते या डंठल भी लाभ
दे जाते हैं।
चूर्ण –चाटनी बनाने वाले पुदीने की प्रधानता रखते हैां चासनी के सहारे उसका शरबत भी बनाया जा सकता हैं और गर्मी के दिनेां में जलपान – अतिथ्य
की तरह काम में लाया जा सकता हैं ।
पुदीना हैजे की दवा हैां अर्क पुदीना के रूप इसका उपयोग , जी मचलना ,अफरा अतिसार ,बवासीर आदि में होता हैां शरीर को सुगाठित बनाने के लिए उसका लेप या उबटन भी किया जा सकता हैां
ह्रदय की दुर्बलता ,तो ब्लडप्रेशर में उपयोग हैां हिचकी एवं श्वांस रोगेां में भी इसे प्रयुक्त करते हैां ज्वर तथा उसके बाद दुर्बलता में भी इसे प्रयुक्त करते हैां पत्रों का ताजा स्वरस 5 से 10 मिली लीटर ( 1 से 2 चम्मच ,फाण्ट 4से 8 चम्मच व तैल 1 से 3 बूँद की मात्रा में प्रयुक्त करते हैं।)
(9)पिप्पली – छोटी पिप्पली ,बड़ी पिप्पली इन दो किस्मों में यह काम
में लाई जाती हैं। घरेलू प्रयोजन हेतू गरम मसालों में ,औषधि उपचार में छोटी पिप्पली ,पीपर या लैंडी पीपल का ही उपयोग हैां इसकी लता फैलती हैां और बर्षो तक रहती हैां फल छोंटे शहतूत की शक्ल का होता हैां इसी का प्रयोग किया जाता हैां सूखने पर फल काले हो जाते वर्षेा में फूल और और स्वाद ऋतु में फल आते हैां इसकी जड़ में भी फल जैसे गुण होते उसे
पीपलमूल कहते हैं। इसकी बेल को किसी आधार के सहारे बढाया जाता हैां जमीन पर फैलने में कठिनाई हैां
पिप्पली पौष्टिक हैां और पाचक भी । प्रात: दूध और शहद के साथ लें ,
तो बलवर्धक हैां बच्चों की पसली चलने पर भुनी पीपल का जरा सा चूर्ण शहद में मिलाकर खिलाया और लगाया भी जा सकता हैां
जिगर बढ़ना ,तिल्ली बढ़ना ,अफरा ,अपच ,वमन ,अजीर्ण आदि में तथा श्वांस ,खॉंसी में भी लाभदायक हैां जुकाम ,आधा सीसी में भी इसे दिया जा सकता हैां ज्वर ,राजयक्ष्मा में भी लाभदायक हैां वायु गोला , हिस्टीरिया में भी इसका उपयोग लाभदायक होता हैां अतिसार ,संग्रहणीं ,बवासीर में भी पिप्पली का उपयोग किया जा सकता हैां
आयुर्वेद के मतानुसार पिप्पली अग्निदीपक ,बलवर्धक ,रसायन ,उष्ण
,चरपरी ,वात –कफनाशक मानी गई हैां पिप्पली ,सौंठ ,कालीमिर्च के साथ ‘त्रिकुटा’ का महत्वपूर्ण धटक हैां सौंठ के चूर्ण व गुड़ के साथ इसे लेने पर
आमशूल ,अजीर्ण और सूजन दूर होती हैां पिप्पली को नीम के रस में उबालकर नासिक मार्ग से देने पर अपस्मार रोग में लाभ होता हैां इसके काढ़े में शहद मिलाकर पीने से जीर्ण वात –कफजन्य ज्वर दूर होता हैां
पिप्पली की प्रमुख किया फेफड़ो व गर्भाशय पर होती मानी गई हैां फेफड़ो
के व्रण ,पुरानी खॉंसी ,तपेदिक में यह बहुत लाभकारी हैां प्रसूति में देरी हो रही हो
(यूटेराइन इनर्शिय) तो पीपला मूत्र ,चित्रक मूल व हींग को पान में रखकर देने
से प्रसूति किया तुरंत संपन्न होने लगती हैां मलेरिया ज्वर यकृत –प्लीहा वृद्धि को
यह मिटाती हैं। पक्षाघात एवं सायटिक रोग में भी यह लाभकारी हैां पेट के सभी
प्रकार के कृमि इसके सेवन से मर जाते हैां मिश्री के साथ इसका एक ग्राम की मात्रा में सेवन हिचकी मिटता हैां पिप्पली व बच का चूर्ण सम मात्रा में जल के साथ लिया जाए, तो आधा सीसी का दर्द मिटता हैं। रसायन प्रयोजन हेतु वर्धमान
पिप्पली का प्रयोग होता हैं। ,जिसमें दस दिन तक क्रमश :3-3 फल बढा़ते व बाद
में कम करते हुए इसका प्रयोग किया जाता हैां चूर्ण की मात्रा एक ग्राम से ग्राम से
अधिक नहीं की जानी चाहिए । मधु ,मिश्री ,एवं गुड़ श्रेष्ठ अनुपान हैां
(10) गिलोय (अमृता)- यह बेल पेड़ पर चढा़ई जाती हैां और चिरकाल तक स्थित रहती हैां इसके लिए बड़े-पेड का आश्रय चाहिए । नीम पर चढा़ई जा सके
तो सर्वोतम हैां गिलोय के डंठल काम में आते हैां कोपलें भी प्रभावशाली होती हैां
जितना टुकड़ा आवश्यक हो , उसे ऊपर से काटना चाहिए । नीचे तने की ओर से
काट लेने पर तो ऊपर का सारा भाग सूख जाता हैां
गिलोय को पानी में पीसकर ठंडाई जैसी बना लेनी चाहिए । यों उसे पंसारी
सुखाकर भी टुकडेा में बेचते हैां गिलोय का सत भी निकालते पर आधिक अच्छा
यही हैां कि उसे गीली स्थिति में ही लिया जाए , चटनी या ठंडाई के रूप में ही
प्रयुक्त किया जाए । उसे एक बार या आवश्यकतानुसार प्रात: सायं दो बार लिया
जा सकता हैां
गिलोय को रामबाण स्तर की संजीवनी बूटी माना गाया है । इसके गुण प्राय : तुलसी से ही मिलते – जिलते हैं। यह पुराने ज्वरों केा तोड़ती हैां राजयक्ष्मा को जड़ से उखाड़ती हैां रक्तचाप ,ह्रदय रोग एवं मधुमेह के लिए असाधारण सिद्ध होती
हैं। गिलोय बलवर्धक हैां वह प्रमेह ,स्वप्नदोष व नपुंसकता आदि में भी अपना प्रभाव प्रस्तुत करती हैां यह हानि रहित औषधि हैां
गिलोय घी के साथ वात को , शक्कर के साथ पित को ,शहद के साथ कफ
केा एक सोंठ के साथ के साथ आमवात को दूर करती हैां इसका ज्वर शामक गुण किसी भी एण्टीबायोटिक से कई गुना बढ़कर हैां तुलसी और बनफसा के साथ इसको मिलाकर लेने पर जीर्ण ज्वर में तुरंत लाभ होता हैां जलोदर (ऐसाइटिस),
कामला ,पीलिया में यह चमत्कारी लाभ पहुँचाती हैं। क्षय रोग में ढाई तोला गिलेाय
का रस छोटी पिप्पली के एक ग्राम चूर्ण के साथ प्रात: काल पिलाया जाता हैां सर्प
विष में इसकी जड़ का रस या काढा काटे हुए स्थान पर लगाया जाता हैां ऑंखेा में
डाला जाता हैां एवं आधे –आधे घंटे में पिलाया जाता हैां गिलोय एक मेधा –वर्धक औषधि हैां ,मस्तिष्क विकारेां में बड़ी उपयोगी हैं एवं एक रसायन हैं। हरी स्थिति
में विकारेां में वडी उपयोगी हैां एवं एक रसायन हैां हरी स्थिति में गिलोय की मात्रा
10 से 25 ग्राम व सूखी गिलोय की मात्रा 4 से 6 ग्राम । सत्व की मात्रा आधे से दो ग्राम तक मानी गई हैां सवश्रेष्ट अनुपान मधु हैां
(11) तुलसी –सब रोगों की एक ही औषधि क रूप में तुलसी ख्याति प्राप्त वनस्पति हैां तुलसी की दो किस्में पायी जाती हैां –एक वह ,जो प्राप्त पूजा –अर्चा में प्रयुक्त होती हैां दूसारी वह जिसके बड़े और काले पते होते हैां फल काले एवं गुच्छेदार होते हैां इसमें कीटाणु नाशक गुण विशेष हैां इसका तेल बनाया और लेप लगाया जाता हैां खुजली ,दर्द ,छाजन ,बर्र ,बिच्छू ,आदि के काटे में काम आती हैं। हल्दी में मिला हुआ उबटन करने से शरीर की दुर्गध दूर होती हैां ,मुहॅांसे दूर होते हैां तथा जुऍं भरते हैं। इसकी गंध से मच्छर ,खटमल मथा कृमि –कीटक भागते हैां
पूजा में काम आने वाली तुलसी के अनेक गुण हैं। उससे घर का वातावरण
शुद्ध होता हैां धार्मिक तथा अध्यात्म भावनाओं केा पोषण मिलता हैां अनेक रोगों में
आनुपान भेद से उसका उपयोग किया जा सकता हैां अनुपान का तात्पार्य हैां,उन पदार्थो का थेाडा सा सम्मिश्रण जो औषधि का प्रभाव तो बढा़ते हैं।,साथ ही हानि रहित हैां जैसे बुखार में तुलसी को गिलोय के साथ और खॉंसी में पान ,अदरक के साथ दिया जाता हैं। इस तरह जिस प्रकार की व्यथा हो ,उसी के अनुसार तुलसी के पते ,पानी या अन्य अनुपान के साथ पीसकर पिलाए या चटाए जा सकते हैं। वयस्क के लिए दस पते और छोटे बच्चो के लिए पॉंच पर्याप्त माने जाते हैां तुलसी केा शत रोग निवारक भी कहते हैां वह प्राय: हर रोग में प्रयुक्त हो सकती हैां अनुपान द्रव्य को मूल औषधि की तुलना में एक तिहाई या चौथाई लेना चाहिए।
पीने –चाटने से पूर्व उसे इतना बारीक कर लेना चाहिए कि वह आसानी से गले के
नीचे उतारा जाए । कंठ में अड़चन उत्पन्न न करे , दॉंतो में उलझे नहीं ।
तुलसी ज्वर नाशक तो हैां ही, शील प्रधान रोगों में विशेष रूप से काम में ली जाती हैां संधियों की सूजन में इसे अपमार्ग व निर्गुण्ड़ी मे साथ देते हैां यह कृमिनाशक व वायु नाशक हैां तुलसी के बीज का हिम ,जीरा ,दानेदार शक्कर व दूध के साथ देने पर मूत्रपिण्ड़ की पथरी में लाभ होता हैां सफेद दागों व मुँहासो में
तुलसी का रस ,नीबू का रस व काली कसौंची का रस धूप में रखकर गाढा़ बनाकर
चेहरे पर लगाया जाता हैां तुलसी के पतो का काढा मासिक धर्म के बाद तीन दिन
तक नियमित लिया जाए , तो गर्भ नहीं रहता । इस रूप में एक श्रेष्ठ ,सिद्ध गर्भ
निरोधक हैां अतिसार में तुलसी पत्रों का फाण्ट ,जायफल का चूर्ण मिलाकर दिया जाता हैां अडूसे के रस के साथ तुलसी का स्वरस देने पर पुरानी खॉसी व दमा मिट जाता हैां वस्तुत : तुलसी सर्व रोग नाशक संजीवनी बूटी हैां
(12) अजवान –इसे छोटी अजमोद भी कहते हैां 1 से 3 फुट ऊँचा इसका पौधा
सारे भारत में होता हैां फरवरी से अप्रैल के मध्य में फूल बाद में फल पकते हैां ,
फलों में एक सुगंधित तैलीय द्रव्य होता हैां जो अजवाइन का क्वाथ बनाने पर उड़
जाता हैां इसी कारण अजवाइन का कभी क्वाथ नहीं बनाया जाता हैा चूर्ण 1 से 3
ग्राम ,तैल 1 से 3 बूँद ,सत्व 30 से 120 मिली ग्राम एवं अर्क 20 से 40 मिली लीटर की मात्रा में प्रयुक्त होता हैां
अजवाइन कफ –वात शामक एवं पित वर्धक हैां अजवाइन का लेप या उसके तैल की मालिश सूजन और दर्द वाले विकारो में करते हैां सत अजवाइनों को गरम जल में मिलाकर घावों को साफ करना ,एण्टीसेप्टिक घोल से साफ करने से भी बढ़कर हैां पेट में दर्द होने ,फूलने की स्थिति में पेट पर उसकी पोटली बनाकर सेकते हैां यह भंदाग्नि को प्रदीप्त करती ,भूख बढा़ती ,अजीर्ण ,अपच एवं उदरशूल मिटती हैां हुकवर्म में सत अजवाइन लाभकारी हैां जीर्ण खॉंसी एवं श्वांस रोग में इसका चूर्ण देते हैां ,एवं धूम्रपान कराते हैां जमा हुआ बलगम निकलता हैां , दुर्गन्ध नष्ट होती हैां जीवाणु वृद्धि को भी यह रोक कर एण्टीबायेाटिक की भूमिका
निभाती हैां श्वांस का दौरा भी इसको प्रयोग से कम हो जाता हैां
कष्ट से होने वाले मासिक धर्म एवं प्रसूति के बाद अजवाइन को दिए जाने
की महता धर –घर में प्रचलित हैां यह गर्भाशय का संशेाधन करते हैां तथा ज्वर मिटती हैां गर्भशय के आस –पास प्रजनन संस्थान में होने वाले रोग (पी .आई.डी.)
इसके प्रयोग से नष्ट होते हैां अफीम की लत जिसे हो,उसे अजवाइन का प्रयोग नियंत्रित मात्रा में कराने पर इसका अभ्याय छूट जाता हैां शीत के साथ आने वाले वायरस ज्वरों अजवाइन का प्रयोग लाभकारी हैां अजवाइन मसालेदान का एक महत्वपूर्ण घटक हैां एवे शुद्ध स्थिति में बड़ी गुणकारी औषधि हैां
(13) धनिया –1 से 3 फीट इसका पौधा सारे भारत में पाया जाता हैां फूल
सफेद या बैंगनी होते हौं फल गोलाकार पीले –भूरे होते हैां जो दबाने पर दो भागो में बॅंट जाते हौं जिनमें एक –एक बीज होता हैां शीत ऋतु के अंत में फूल और फल लगते हैां इसे धणा या कैथमीर भी कहते हैां सारे भारत में हरी हालत में चटनी बनाने के काम में व सूची हालत में मसाले में डालने के काम आता हैां
आयुर्वेद मतानुसार यह चरपरा ,कसैला ,उष्णवीर्य ,जठराग्नि को प्रदीप्त करने
वाला हैां पाचक एवं ज्वर नाशक भी हैां तीनेां दोषो को यह शमन करता हैां फलों
का चूर्ण 3 से 6 ग्राम ,हरे पचांग का हिम 20 से 40 मिली लीटर ,तैल 1 से 3 बॅूंद तक प्रयुक्त होता हैां
हरी –धनिया की पती पीसकर सिर दर्द तथा अन्य सूजनों पर इसका लेप करते करते हैां मुँह के छाले या गले के रोगों में हरे धनिया के रस से कुल्ला
करते हैां नेत्रो की सूजन व लाली में धनिया को कूटकर पानी में उबाल कर , उस
पानी को कपड़े से छानकर ऑंखो में टपकाने से दर्द कम होता हैां ,लाली मिटती हैां
एवं पानी जाना बंद हो जाता हैां पतों का स्वरस नाक से नकसीर फूटने पर डालते
ही रक्त आना बंद हो जाता हैां
धनिया का छिलका उतारकर उसकी मज्जा (मिंगी) को दूध में उबालकर कर
उस दूध का सेवन मूर्छा या मतिभ्रम में करते हैां यह प्यास ,अरूचि ,वमन , अग्निमन्दता ,अजीर्ण एवं उदरशूल को मिटाता हैां गर्मी की वजह से पेट में होने वाले दर्द में धनिया पीसकर खिलाते हैां अगर दस्तेा के साथ खून आता हैां, तो धनिया को पानी में भिगेाकर पीस –छानकर पीना चाहिए ।
बुखार में देने से , साथ जुड़़े कष्ट सथा ,तृष्णा ,वमन ,सिर दर्द, शांत होते हैां कामोन्माद को शांत करने के लिए भी धनिया केा पानी में भिगेाकर दिया जाता हैां बच्चों की खॉंसी में धनिया केा चावल के माढ़ में धोंट कर पिलाते हैां गर्भवस्था
की उल्टी में धनिया के काढ़े में मिश्री मिला कर देते हैां पागलपान ,मिर्गी, हिस्टीरिया ,उन्नाद को यह जल्दी ही शांत कर देती हैां
(14) टमाटर – टमाटर का आम उपयोग शाकों में होता हैां इसमें खटाई की मात्रा अघिक रहती हैां इसलिए आम , इमली आदि के स्थान पर उसे काम में लाया जाना सस्ता भी पड़ता हैां और सुलभ भी । उसमें नीबू से मिलते –जुलते गुण पाए जाते हैां नारंगी का मज्जा भी उसमें मिल सकता हैां
टमाटर पाचक हैां, स्वादिष्ट तो हैां ही । पेट के रोगों में उसका उपयोग भली
प्रकार किया जा सकता हैां जी मिचलाना , डकारे आना ,पेट फूलना ,मुँह के छाले,
मसूढेां के दर्द जैसे रोगों में टमाटर का सूप बनाकर दिया जा सकता हैां, उसमें अदरक ,काला नमक आदि भी । चाय ,काफी के स्थान पर यदि एक-एक या आधा – आधा कप कई बार दिन में लिया जाए , तो उससे स्फूर्ति भी मिलती हैां और पेट की सफाई होती हैां
टमाटर की कई किस्में हैां , उसमें के कोर्इ न कोई हर महीने उगाई जा सकती हैां गुणेां की दृष्टि से वे लगभग समान हैां टमाटर की चटनी शाक का काम भी देती हैां और उदर रोगेां में उपचार का टमाटर का सेवन शरीर की स्थूलता ,उदर रोगेां ,अतिसार अपेण्डिसाइटिस में बड़ा लाभकारी पाया गया हैां टमाटर में लोहे का परिमाण अन्य वनस्पतियॉं –फलों की तुलना में अधिक हैां यह रक्ताल्पता की एक अच्छी औषधि हैां इसके विटामिन साधारण अग्नि से नष्ट नहीं होते । बेरी –बेरी ,गठिया व एक्जिमा में इसका सेवन लाभप्रद हैां ज्वर के बाद की कमजोरी को यह मिटाता को यह मिटाता एवं मधुमेह के रोग के लिए सर्वश्रेष्ठ पथ्य हैां
(15) लहसुन – लहसुन प्याज की बिरादरी का हैां ,पर उससे कहीं अधिक तीक्षण एवं गरम हैां इसकी मात्रा थोड़ी ही ली जाती हैां गंध भी उससे तीव्र होती हैां
यह उतेजक हैां चाय काफी की तरह लहसुन खाने से भी उतेजना आती हैां उससे नपुंसकता जैसे रोग दूर होते हैं। गले में घेघा फूल जाने की स्थिति में लहसुन का
उपयोग लाभदायक सिद्ध हैां
लहसुन कच्चा नहीं खाया जाता । उसे किसी खाद्य पदार्थ में मिलाकर खाते हैां ,ताकि गंध एवं तीक्ष्णता हल्की पड़ जाए । लहसुन को मेवा एवं मावा मिलाकर
उसकी कतली व लड्डू भी बनाए जाते हैां उनका सेवन जाड़े के दिनो में उतम हैां गर्मी के दिनों में अधिक लहसुन खाने से जलन होने लगती हैां प्यास की बढेातरी
हो जाती हौं आमाशय की झिल्ली कड़ी होने एवं अल्सर में लहसुन का उपयोग अच्छा होता हैां दॉंत का दर्द मसूढ़े फूलने पर लहसुन को पीसकर उसकी धीरे –धीरे
मालिस करनी चाहिए ।
लहसुन को झिल्ली के तेल में पकावें । एक पाव तेल में आधी छटांक लहसुन पीसकर घीमी आग पर पकने दें । लहसुन जब काला पड़ जाए , तेा उसे छाने लें । यह लहसुन का तेल तैयार हेा गया । काम के दर्द में इसकी कुछ बूँद डालकर रूई से बंद कर देना चाहिए । इस प्रकार कर्इ दिन प्रयोग करने से कान
में फुंसी भी उठी हो तो ,वह साफ हो जाती हैां जमा हुआ मैल भी फूलकर निकाल जाता हैां और उसे सलाई के सहारे बाहर निकाल देने से कान साफ हो जाता हैां बहरापन बढ़ रहा हेा , तेा उसमें भी इसके प्रयोग से लाभ होता हैां
जोड़ो के, रीढ के दर्द में लहसुन के तेल की मालिस की जा सकती हैां चमड़ी में पंजा गड़ाकर बैठने वाली छोटे किस्म की जुऍं भी इसकी मालिस से भर जाती हैां उठते हुए फोडो पर लहसुन की पुल्टिस बॉधने से पीने के लिए लहसुन के साथ
उबला पानी देने से आराम होता हैां
मुख मार्ग से देने से श्ंवास व ढकार में दुर्गन्ध आने के कारण इसका बाहा प्रयोग ही बहुथा अपने उपचार में मान्यता प्राप्त हैां
लहसुन को पीसकर छाती पर लेप करने से ,फेफड़ो की पुरानी बीमारी –राजयक्ष्मा में कफ जल्दी निकलता हैां सभी प्रकार के धावेां, सूजन आदि के लिए यह एक श्रेष्ट एण्टीसेप्टिक हैां सारे वात रोग ,संधि शोधेां में उसके तेल की मालिय करते हैां खुजली में लहुसन की कली को पीसकर राई के तेल में गरम कर
उस तेल से मालिस करते हैां वाह्रा प्रयोग में यह ध्यान रखना चाहिए कि यह एक
बहुत ही तीव्र जलन करने वाली चर्मदाह औषधि हैां अधिक समय तक लेप करने पर छाला उठ जाता हैां अंतरंग प्रयेाग में इसका ह्रदय रोगेां में (कोरोनरी नलिाकाओं
में रक्तवरोध) एवं कोलेस्ट्र्रल को घटाने हेतू ,फेफड़ो के क्षय एब्सेस आदि में प्रयोग
तेा अब वैज्ञानिक दृष्टि से प्रमाणित हैां उसके तेल की ‘मार्लिक पर्ल्स’ भी बाजार में
उपलब्ध हैां इसकी तीक्ष्ण गंध ,तामसिक वृति एवं उतेजक गुण वाला होने के कारण ,जहॉं इसके सेवन को उचित न समझा जाए ,वहौं वाह्रा प्रयोग तो किया जा सकता हैां
(16) ग्वारपाठा ( घतकुमारी ) – तुलसी ,गिलोय की तरह यद्यपि ग्वारपाठा , जिसे घी कुंवार भी कहते हैां ,मसाला तेा नहीं हैां, पर ऑंगनवाड़ी लगाते समय उसे भी लगा देना चाहिए । अपने ढंग की घरेलू दवा तेा हैां ही । उसकी प्रकृति गर्म मानी जाती हैां एवं शक्तिवधर्क भी सामान्य उपयोग में इसका गूदा ही आता हैां
जेा छिलके के साथ मजबूती से चिपका रहता हैां उसे चाकू से ही अलम करना पड़ता हैां
घी –तेल में तलकर मसाले डालकर उसे शाक की तरह भी खाया जा हैा और
आटे में मिलाकर लडडू , कतली भी बन सकते हैां उसे आहार की तरह सीमित मात्रा में प्रयोग किया जा सकता हैां प्रसव के उपरांत जननी को भी पेट की सफाई के लिए खिलाया जाता हैां पेट के रोग में विशेष रूप से काम में आता हैां उसकी पुल्टिस दुखने वाले स्थानो पर बॉंधी जाती हैां पेट दर्द ,सिर दर्द आदि में उसकी लुगदी बॉंद देने से लाभ होता हैां
फेफड़ेा की सूजन ,श्वास रोग ,तिल्ली ,जिगर तथा गुर्दे की बीमारी में इसका
उपयोग लाभकारी हैां घी कुंवार के रंग को सुखाकर एक पदार्थ बनाया जाता हैां ,जिसे एलुआ या मुसंबर कहते हैां वह नरम व पारदर्शी होता हैां यह मज्जावर्धक ,कामोतेजना देने वाला ,कृमि नाशक एवं विष निवारक माना गया हैां सारे शरीर
के मल शोधन हेतु घीकुवंर एक श्रेष्ट औषधि हैां जठराग्नि को यह प्रदीप्त करता
हैां एवं हर प्रकार की खॉंसी ,लीवर के रोगेां में आराम पहुँचाता हैां यह चर्म रोगेां में
भी यह रक्तशोधक की भूमिका निभाता हैां पेट में इसकी प्रधान किया बड़ी ऑंत
एवं उतर गुदा ( एनौरेक्टल जंक्शन ) पर होती हैं। घी कुवांर का गूदा 6 माशा मिलाकर खाने से वायु गोले से हुआ पेट दर्द मिट जाता हैां रक्त प्रदर ,श्वेत प्रदर एवं हर प्रकार के प्रजनन अंगो की बीमारी में प्रयोग लाभकारी हैां रजोरोध होने पर
मासिक धर्म के समय से एक सप्ताह पूर्व से इसका सेवन आरंभ कर देना चाहिए।
पत्र का स्वरस मात्रा में 12 से 20 मिली लीटर (2 से 4 छोटे चम्मच ) एवं एलुआ चूर्ण ½ ग्राम तक की मात्रा देते हैां अधिक ध्यान हर स्थिति में रखा जाना
चाहिए विशेष रूप से सूखे एलुआ चूर्ण के संबंध में ।
(17) प्याज –यह आहार एवं शाक भाजी के रूप में प्रयुक्त किया जाता हैां इसकी तामसिक प्रवृति उष्णवीर्य एवं तीक्ष्ण गुण हेाने के कारण कई वर्ग इसके सेवन कर निषेध करते हैां , केवल बाह्रोपचार में प्रयुक्त करते हैां
आयुवैदिक मतानुसार प्याज बलकारक ,कफ –पित नाशक , वमन दोष हरने
वाली औषधि हैां क। निकालने के लिए यह एक उतम औषधि हैां ऑंतो की क्रिया शक्ति केा बढाका दस्त साफ लाने में एवं बवासीर में इसका प्रयोग किया जाता हैां
यह ऋतु चाव में नियमितता लाता हैां बोकांइटिस ,लीवर के विभिन्न रोगेां एवं कष्टयुक्ता मासिक धर्म में इसका प्रयोग होता हैां
बाह्रापचार में वेदना निवारक एवं शेाध मिटाने वाला गुण होने के कारण इसे
संधियों की सूजन एवं व्रण शोध में चटनी रूप में गरम करके बॉंधते हैां प्याज का रस व तेल मिलाकर मलने से गाठिया रोग की पीडा कम हाती हैां
दाद और खुजली में इसके रस का लेप किया जाता हैां नाक से नकसीर फूटने पर प्याज का रस टपकाते हैां काम के दर्द , फुन्सी में प्याज के बीच का भाग गरम कर सकते हैां अथवा ताजे प्याज का रस गरम करके कान में टपकाते
हैां लू में ताजे रस का सेवन तथा लेप सारे शरीर में करते हैां प्याज का रस ऑंखो में लगाने से नेत्रों की पीड़ा मिटती हैां एवं मसूडेा पर लगाने से सूजन कम होती हैां
हल्दी के साथ पुल्टिस बनाकर लहसुन की तरह यह भी फेाड़े पकाने व मुंदी चोटों की पीड़ा कम करने हेतु प्रयुक्त होता हैां मधुमेह के कारबन्कल एवं गिल्टियेां में यह प्रयुक्त होता हैां इसके रस को मसल कर लगाने पर बिच्छू के विष की पीड़ा कम होती हैां
(18) ऑंवला –ऑंवला पेड़ वर्ग में गिना जाता हैा ,पर उसके फल पौष्टिक और शोधक माने जाते हैां रक्तविकार में काम आते हैां सुखाकर रस लेने पर भी उसमें विटामिन ‘सी’ पर्याप्त मात्रा में बना रहता हैां यह नेत्र ज्योति बढ़ाने ,मस्तिष्क मज्जा केा बल देने में विशेष् रूप से उपयेागी यिद्ध होत हैां ऑंवले का चूर्ण बारीक पीसकर एक तोला पानी में भिगो दिया जाए , प्रात: काल उसे छानकर
उस पानी से सिर धोया जाए , तो बालेां की जड़े मजबूत होती हैां जमी हुई रूसी झड़कर अच्छी तरह साफ हो जाती हैां
नींबू की तरह ऑंवले की खटाई भी स्वादिष्ट तथा गुणकारी हैां उसमें आम
,इमली जैसी खटाइयॉं से होने वाली विकृतियॉ उत्पन्न नहीं होती । भूने या उबले
ऑंवले का पानी बनाकर लू लगने की स्थिति में लिया जा सकता हैां
ऑंवला आमाशय की अम्लता केा कम करता हैां ,अत: अम्लपित (पैप्टिक अल्सर ) , ½ से 1 चम्मच चूर्ण की मात्रा में एण्टेसिड की तरह बड़ी सफलता से प्रयुक्त होता हैां अनुपान जल होता हैा मधु से साथ सबेरे –शाम देने पर बवासीर
में भी लाभ पहुँचता हैां यह एक श्रेष्ठ रसायन हैां, जिसका कायाकल्प में प्रयोग होता हैां यह त्रिफला ( ऑंवला ,बहेड़ा,हरड़) एक महत्वपूर्ण घटक हैां , जो विरेचक के रूप में व दोष मिटाने हेतु एवं रसायन रूप में प्रयुक्त हैां
अन्य औषधि मसाले –कुछ मसाले ऐसे हैां, जिन्हें न घर में अपनी शाक वाटिका में उगाया जा सकता हैां ना ही किसी अन्य विधि से बनाया जाता हैां इनमें औषधीय प्रयोजन की दृष्टि से , घरेलू नुस्खो के रूप में प्रयुक्त होने वाले तीन प्रमुख्य हैां – सुहागा, हींग ,काला नमक । ये केमिकल समूह में आते हैां तीन
औषधियॉं जो विशिष्ट जलवायु में ही पेदा होती हैां, बड़े सुगम रूप में मसाला उपचार में प्रयुक्त की जा सकता हैां –ये हैां लौंग ,तेजपत्रक दालचीनी । इनका
भी वर्णन किया जा रहा हैां ,ताकि सर्वोपलब्ध इन मसालों से घरेलू उपचार का सिलसिला चल सके ।
(19) सुहागा-एक प्रकार का खनिज द्रव्य हैां एवं इसे टेकन बार भी कहते हैां
अंग्रेजी में इसे बोरेक्स नाम दिया गया हैां यह सफेद रंग रहित रवेदार होता हैां ,जिसे शोधन के बाद प्रयोग में लाया जाता हैां शास्त्रेाक्त पद्धति (शालिग्रामनिघंटु)
तो बड़ी पेचीदगियों से भरी हैां, पर सबसे सरल विधि अंगारे पर रखकर फूला पाड़ने
की हैां फिर यह शोधित सुहागा एक रोगनाशक दवा बन जाता हैां इसका स्वाद नमकीन खारा होता हैां आयुर्वेदिक मत से सुहागा अग्निवर्धक ,खॉंसी एवं श्वांस रोग को दूर करने वाला ,ज्वर एवं पेट के दर्द को दूर करने वाला हैां यह कृमि नाशक एवं विष नाशक हैां मूत्र मार्ग से बाहर निकालते समय पानी व उत्सर्जित यूरिया पदार्थ की मात्रा बढा़ता हैां एवं थोड़ी मात्रा लेने से हर प्रकार के कृमियों को निकाल बाहर करता हैां गर्भशय की संकुचन किया को व मासिक धर्म परिमाण को भी यह बढाता हैां
विभिन्न रोगों में इसे प्रयोग करने की विधि इस प्रकार हैं –
- मुँह के छालों में सुहागा के पानी से कुल्ला करने से वे तुरंत मिटते
हैां पॉंच रती से लेकर एक माशा सुहागा आधे गिलास जल में मिलाकर प्रयुक्त होता हैां जल औटाकर कुल्ला कराया जाए , तो मुख व गले के मार्ग की सूजन मिट जाती हैां काली मिर्च पीसकर साथ में लगाने पर मसूडे के घाव तुरंत भर जाते
हैां
- मंदाग्नि भूख न लगाने की स्थिति में ½ माशा फूला सुहागा एक कप
गुने –गुने जल में दिन में दो या तीन बार देती हैां
- त्वचा की खुजली पर सुहागे का पानी लगाया जाता हैां नींबू के रस
में मिलाकर लगाने पर एक्जिमा केा समाप्त करता हैां
- बच्चों की खॉंसी में फुलाया सुहागा 2-3 रती की मात्रा में शहद या
दूध के साथ देते हैां
- मासिक धर्म की रूकावट ,गर्भशय की सूजन व दर्द में , सुहागें को
एक माशे की मात्रा में जल के साथ मिलाकर देने से रूकावट मिटती व रक्त स्त्राव ,खुलकर होता हैां
(छ) अण्ड़कोष के सूजन में दो रती फूला सुहागा गुड़ के साथ प्रात: काल लेने
पर तीन –चार दिन में आराम पहुँचता हैां
(ज) सर्पदंश या किसी भी प्रकार के स्थावर विषजन्या विकार की शांति हेतु सुहागा मिश्रित जल देते हैां अथवा डेढ़ तोला सुहागा घी में मिलाकर पिलाते हैां
(झ) लगभग तीन तोला फूला सुहागा चार तोले शहद में मिलाकर प्रतिदिन लेने से दमा रोग मिटता हैां
(द्य) मुँह पर मुँहासो – झांई को मिटाने के लिए सुहागे को चंदन के साथ पीसकर लेप लगाते हैा
(20) हींग – वस्तुत: एक वृक्ष का दूध हैां हो जमकर गोंद की शक्ल ले लेता हैं । भारत में यह ईरान से जाती हैां इसे उग्रगंधा या सहस्र वेधी भी कहते हैां काली भूरी तीखी गंध वाली हींग सर्वश्रेष्ठ मानी गई हैां यह छोंक आदि में भोजन में ब्ड़े व्यापक स्तर पर प्रयोग की जाती हैं।
आयुर्वेदाचार्यो के अनुसार हींग की अग्नि को बढ़ाने वाली ,आमाशय व ऑंतो के लिए उतेजक ,पितवर्धक ,मल बॉंधने वाली , खॉंसी ,कफ अफरा मिटाने वाली , दर्द व पेट के दर्द को मिटाने वाली एक परीक्षित औषधि हैं। इसे अजीर्ण एवं कृमि रोगों में भी प्रयोग करते हैां लीवर को यह शक्ति देती हैां एवं मस्तिष्कीय विकारों में भी इसका प्रभाव देखा गया हैां हींग को देने से श्वांस नलिका में जमा कफ पतला होकर निकल जाता हैां हीग को शुद्ध करके लिया
जाता हैां लोहे के पात्र में घी डालकर गर्म करते हैां लाल होने पर उतार देते हैां
पेट का फूलना ,दर्द ,अपच एवं कृमि रोग में हींग 2 से 6 रती तक की मात्रा में
अजवाइन व घीकुँवार के गूदे के साथ देते हैां ऑंतेा में अल्सर होने पर इसके पानी का एनीमा भी दिया जाता हैां
मलेरिया ज्वर में हींग व कपूर की मिली हुई बटी दी जाती हैां एक तोला हींग व एक तोला कपूर ,इन दोनेा को शहद में घोंट कर रती –रती भर गोलियॉं बनाकर दी जानी चाहिए । ज्वर के साथ सन्निपात की स्थिति होने पर हींग ,कपूर व अदरक का रस मिलाकर जीभ पर लगा देने भर से आराम होने लगता हैां छाती की धड़कन , ह्रदय शूल ,घबराहट में एक रती मात्रा में ली गई हींग तत्काल लाभ देती हैां हिस्टीरिया में इसे मस्तिष्क – उतेजक होने के नाते और
स्नायु –तंतुओं को बल पहुँचाने वाले गुण के कारण दिया जाता हैं।,जो निश्चित ही लाभ पहुँचाता हैां काला नमक ,अजवाइन व स्याहजीरा आदि के साथ यह सभी उदर रोगों में हिंग्वाष्टक व स्याहजीरा आदि के साथ यह सभी उदर रोगेा में हिग्वाष्टक चूर्ण के रूप में प्रयुक्त होती हैां सर्पदंश में बताया जाता हैां कि हींग को नारियल के दूध में डुबाकर काटे हुए स्थान पर लगाया जाता हैां निमोनिया ,ब्रॉंकाइटिस ,हूपिेग कफ (कुकर खॉंसी ) में 1 से 4 रती की मात्रा में दी गई शोधित हींग बडी लाभकारी हैां पेट के कृमियों के लिए भी इसका नियमित सेवन
लाभप्रद हैां
(21) काला नमक – सर्वोपलब्ध मसाले का एक महत्वपूर्ण अंग , यह लवण सांभर नमक के साथ ऑंवला ,सुहागा ,पियावॉंसा के पतों के सम्मिश्रण से बनाने के बाद उपलब्ध होता हैां बाजार में यह सेंधा नमक की तरह ढेलों में मिलता हैां
काला नमक हिंग्वाष्टक चूर्ण का एक घटक हैां यह हाजमें की शक्ति को बढाता हैां ,वायु मिटाता हैां तथा जोट के फुलाव को दूर कर दस्त लाता हैां भोजन के प्रति अरूचि ,पेट में कृमि तथा उदर रोगजन्य शूल में लाभप्रद पाया गया हैां यह सुलेमानी नमक एवं वज्रक्षार के रूप में सम्मिश्रण से तैयार किए गए इसके चूर्ण आयुर्वेदिक नुस्खों में बहूधा प्रयुक्त होते हैां
घृतकुमारी ,अजवाइन या हींग के साथ इसे उदर रोगों में लिया जाता हैां वायु प्रधान रोगेां में गरम जल के साथ एवं पित प्रधान रोगों में इसे घी के साथ देते हैां रक्त विकार ,सूजन ,जलोदर ह्रदय या लीवर जन्य शोथ में इसकर प्रयेाग किसी भी स्थिति में नहीं किया जाना चाहिए ।
गरम मसाले –विशिष्ट समशीतोष्ण जलवायु में पैदा होने वाली
कुछ औषधियौं ऐसी हैां ,जिन्हें घर –आँगन में उगाया तो नहीं जा सकता ,पर सूखे रूप में वे औषधि की दृष्टि से एवं मसालों के रूप में सर्वोपलब्ध हैां लीग, तेजपत्रक एवं दालचीनी की गणना इनमें प्रमुख रूप से की जाती हैां
(22) लौंग –अपने देश में जंजीबार से आती हैां कुछ वर्षो से दक्षिण भारत के समुद्री किनारों में सफलता मिली हैां लौंग वृक्ष सुगंधित होते हैां एवं इनके फलों की कलियों को ही लौंग कहा जाता हैां वे ही लौंग लाभकारी होते हैां, जिनमें से तेल न निकाला गया हैां
लौंग चरपरी ,अग्निप्रदीपक ,रूचि बढा़ने वाली तथा कफ पित शामक हैां खाँसी ,श्वांस एवं रोगों में प्रयुक्त होती हैां और तृषा तथा वमन को दूर करती हैां लौंग को दॉंतो के दर्द में दंतक्षय व केवीटीज में प्रयुक्त किया जाता हैां ,यह सभी जानते हैां पाचन क्रिया पर इसका सीधा प्रभाव पड़ता हैां भूख बढती
हैां एवं पाचक रसों क स्त्राव बढ़ता हैां पेट के कृमि इसके प्रयोग से नष्ट हो जाते हैां एवं कब्जिजत मिटती हैां इसकी प्रयोज्य मात्रा एक से दो तक की हैां
इसे पीसकर मिश्री की चासनी या शहद के साथ देते हैां
लौंग का सबसे बड़ा गुण हैां रक्त श्वेत कणों कों बढा़ना व जीवनी शक्ति के लिए उतरदायी कोषों का पोषण करना । इसी विशेष् गुण के कारण इसे क्षय
रोग एवं ज्वर आदि मे एण्टीबायोटिक की तरह प्रयुक्त किया जाता हैां वायु नलिकाओं को फैलाकर श्वांस –अवरोध को मिटाने वाले कफ निस्तारक गुण
के कारण यह दमा रोग में बडी लाभकारी हैां यह रक्त शोधक एवं मूत्रल हैां फेाड़े –फुन्सियों या त्वचा की सूजन मे इसका चंदन के साथ लेप करने से वेदना मिटती हैां एवं व्रण जल्दी जल्दी भरता हैां लौंग ,चिरायता समान भाग
पानी में पीसकर शहद के साथ पिलाने से ज्वर उतर जाता हैा लौंग को जल में पीसकर गर्म करके ललाट व कनपटियों पर लेप करने से स्नायु जन्य सिर
दर्द व तनाव मिटाता हैां श्वांस की दुर्गन्ध इससे मिटती हैां खॉंसी में लौंग को ठण्डें पानी में पीसकर ,छानकर ,मिश्री मिलाकर एवं आग पर भूनकर शहद में मिलाकर चाटते हैां वस्तुत: लौंग बडी गुणकारी औषधि हैां, उसे सीमित मात्रा में निर्धारित अनुपान के साथ प्रयुक्त किया जाए।
(23) तेजपत्रक – इसे तेजपात भी कहते हैां हमारे यहॉं यह हिमालय में 3 से 8 हजार फीट की ऊँचाई तक पाया जाता हैां इसके 20 से 30 फीट की ऊँचे वृक्ष होते हैां ,जिनके हर अंग से सुगंध आती हैां इसके पते मसालों के रूप में प्रयुक्त होते हैां इसकी मात्रा पत्र चूर्ण चार माशा की हैां
तेजपात कफ रोगों के लिए बडी उपयोगी वस्तु हैां गरम व खुश्क ,यह औषधि पिप्पली चूर्ण की एक ग्राम मात्रा में शहद के साथ लेने पर खॉंसी व जुकाम को मिटाती हैां अदरक रस के साथ अथवा अदरक के मुरब्बे की चासनी के साथ इसके पतेां का चूर्ण लेने पर दर्म का प्रकोप मिटाती हैा
पेट के वायु विकारों में, दस्त अधिक लगने की स्थिति में ,अजीर्ण में इसका काढ़ा पिलाते हैां मधुमेह में भी इसे उपयोग पाया गया हैां प्रसूति के पश्चात इसका चूर्ण या काढा़ देने से अधिक रक्त स्त्राव एवं सेप्टिक होने के अवसर कम होते हैां मासिक धर्म की प्रयोग से दूर होती हैां मुख की दुर्गन्ध इसके प्रयोग से दूर होती हैां एवं मसूढ़ों पर मलने से दॉंत मजबूत होते हैां, तेजपात के मसालों में प्रयुक्त होने का मूल कारण ही इसका वात, पित
कफ नाशक गुण हैां साथ ही यह पाचन क्रिया को भी सुव्यवस्थित करता हैां इसका नियमित सेवन हर दृष्टि से लाभदायक हैां
(24) दालचीनी –इसे दारूसिता अथवा तज भी कहा जाता हैां इसके पतों में
एक अन्य वृक्ष की मिलावट अक्सर हो जाती हैां महाराष्ट्र्र क्षेत्र अथवा समुद्री किनारों पर मलेशिया एवं लंका में पैदा होता हैां तेजपात की छाल भी दालचीनी में कभी –कभी मिला दी जाती हैां छाल कड़वी ,चरपरी पर सुर्गधित होती हैां चूर्ण की मात्रा 3 से 6 माशे तक एवं तेल की मात्रा 5 बूँद तक प्रयुक्त होती हैां
दालचीनी व्रत ,पित शामक हैां इस गुण के कारण इसे मंदाग्नि में आमाशय को उतेजना देने के लिए ,पेट की वायु को निकालने के लिए ,मरोड एवं वमन बंद करने के लिए , अतिसार एवं कृमि रोगों में , बड़ी सफलता से प्रयुक्त किया जाता हैां क्षय रोग के कारण बलगम में खून आना इसके प्रयोग
से रूक जाता हैां दालचीनी मूलत: रक्त शोधक हैां
अतिसार में दालचीनी की छाल में 4 से 1 के अनुपात में कत्था मिलाकर
इस सम्मिश्रण का काढा़ पिलाने से दस्त बंद हो जाते हैां सोंठ व इलायची को समभाग में इसके साथ 5 रती देने पर कब्ज मिटता व भूख बढ़ती हैां सोठ के साथ सर्दी – जुकाम में इसका काढा़ देते हैां बहुत अधिक दिनों की खॉंसी में दालचीनी ,सॉफ, मुलहठी व मुनक्का इन सबको मिलाकर गोली बनाकर लेने से शीध्र ही आराम मिलता हैां इसका तेल सिर दर्द में आराम पहुँचाता हैां दॉंत के दर्द में इसके तेल का फाया बनाकर लगाने से आराम होता हैां गर्भवती स्त्रियों को इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए ।
दालचीनी मसालेो में एक सर्वश्रेष्ठ औषधि हैां, जीवनी शक्तिवर्धक हैां एवं नियमित रूप से लेने पर रक्त शोधन करती हैां वायरस जन्य रोगों का आक्रमण इसके प्रयेाग से नहीं हो पाता ।
मसाला वाटिका में प्रयुक्त होने वाली उपर्युक्त सभी औषधियेां को जब चिकित्सा प्रयोजन हेतु प्रयुक्त किया जाए , तो हमेशा स्थानीय वैध गणों से मात्रा के संबंध में परामर्श कर लिया जाए । मात्रा की न्यनाधिकता इन मसालों से शरीर में कोई भी विकृति पैदा कर सकती हैां अत:स्वयं चिकित्सा के दर्प में उपचार में कभी जल्दीबाजी नहीं करना चाहिए । प्रस्तुत पुस्तक में जहौं भी विभिन्न रोगों की चिकित्सा का जिक्र आया हैां वहॉं रोग का सही निदान भी एक महत्वपूर्ण पक्ष हैां