कैला देवी का इतिहास मंदिर व मेला
कैला देवी का इतिहास मंदिर व मेला | Kaila Devi Story Temple In Hindi: करौली के यदुवंश (यादव राजवंश) की कुलदेवी कैला देवी पूर्वी राजस्थान की मुख्य आराध्य देवी है. ऐसी मान्यता है. कि द्वापर युग में जब कंस ने वासुदेव-देवकी को मथुरा के कारागृह में बंद किया तो उस समय कंस ने वासुदेव की आठवी संतान (कन्या) का वध करना चाहा. वास्तव में वह कन्या योगमाया का अवतार थी, अतः अंतर्ध्यान हो गई. वही कन्यारुपी देवी करौली में कालिसिल नदी के किनारे त्रिकुट पर्वत पर कैला देवी के रूप में विराजमान है.
चैत्रामास में शक्तिपूजा का विशेष महत्व रहा है। राजस्थान के करौली जिला मुख्यालय से दक्षिण दिशा की ओर 24 किलोमीटर की दूरी पर पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य त्रिकूट पर्वत पर विराजमान कैला मैया का दरबार चैत्रामास में लघुकुम्भ नजर आता है। उत्तरी-पूर्वी राजस्थान के चम्बल नदी के बीहडों के नजदीक कैला ग्राम में स्थित मां के दरबार में बारह महीने श्रद्धालु दर्शनार्थ आते रहते हैं लेकिन चैत्रा मास में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले वार्षिक मेले में तो जन सैलाब-सा उमड पडता है।
उत्तर भारत के प्रसिद्ध शक्तिपीठों में से एक इस मंदिर का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना है। मंदिर के बारे में कई मान्यताएं हैं इतिहासकारों के अनुसार वर्तमान में जो कैला ग्राम है वह करौली के यदुवंशी राजाओं के आधिपत्य में आने से पहले गागरोन के खींची राजपूतों के शासन में था। खींची राजा मुकन्ददास ने सन् 1116 में मंदिर की सेवा, सुरक्षा का दायित्व राजकोष पर लेकर नियमित भोग-प्रसाद और ज्योत की व्यवस्था करवा दी थी। राजा रघुदास ने लाल पत्थर से माता का मंदिर बनवाया। स्थानीय करौली रियासत द्वारा उसके बाद नियमित रूप से मंदिर प्रबन्धन का कार्य किया जाता रहा। मां कैलादेवी की मुख्य प्रतिमा के साथ मां चामुण्डा की प्रतिमा भी विराजमान है।
चैत्रामास में लगभग एक पखवाडे तक चलने वाले इस लक्खी मेले में राजस्थान के सभी जिलो के अलावा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, गुजरात व दक्षिण भारतीय प्रदेशों तक के दर्शनार्थी आकर मां के दरबार में मनौतियां मांगते है। चैत्रामास के दौरान करौली जिले के प्रत्येक मार्ग पर चलने वाले राहगीर के कदम कैला ग्राम की तरफ जा रहे होते है। सत्राह दिवसीय इस मेले का मुख्य आकर्षण प्रथम पांच दिन एवं अंतिम चार दिनों में देखने को मिलता है रोजाना लाखों की संख्या में दूरदराज के पदयात्री लम्बे-लम्बे ध्वज लेकर लांगुरिया गीत गाते हुए आते है। मन्दिर के समीप स्थित कालीसिल नदी में स्नान का भी विशेष महत्व है। मेले में करौली जिला प्रशासन द्वारा मंदिर ट्रस्ट के सहयोग से तथा आमजन द्वारा भी सभी स्थानों पर यात्रियों के लिए विशेष इंतजामात किए जाते है। अनुमानतः प्रतिवर्ष लगभग 30 से 40 लाख यात्री मां के दरबार में अपनी हाजिरी लगाते है।
राजस्थान के करौली जिले में कैलादेवी का मुख्य मंदिर है. इस मन्दिर की चौकी चांदी की व इसकें सोने की छतरी के नीचे दो मूर्तियाँ स्थापित है. इन दोनों मूर्तियों में पहली कैला माता की व दूसरी चामुंडा देवी की प्रतिमा है. आठ भुजाओं वाली इस देवी के मुख्य मंदिर को हिन्दू धर्म की मुख्य शक्तिपीठों में गिना जाता है. राजस्थान यूपी सहित उत्तर भारत के मंदिर में कैलादेवी करौली का विशेष महत्व है. इस प्राचीन हिन्दू मंदिर का निर्माण 1600 ईस्वी में शासक भोमपाल ने करवाया था.
परम्पराओं का निर्वहन
मेले के दौरान महिला यात्री सुहाग के प्रतीक के रूप में हरे रंग की चुडियां एवं सिंन्दूर की खरीदरी करना नहीं भूलती है वहीं नव दम्पत्तियों द्वारा एक साथ दर्शन करना, बच्चों का मुंडन संस्कार की परम्परा भी यहां देखने को मिलती है। मंदिर परिसर में ढोल-नगाडों की धुन पर अनायास ही पुरूष दर्शनार्थी लांगुरिया गीत गाने लगते है तो महिला दर्शकों के कदम थिरके बिना नहीं रह सकते।
चरणबद्द आते है यात्री
कैलादेवी चैत्रामास के लक्खी मेले में प्रदेशों की मान्यता अनुसार यात्राी चरणबद्व रूप से आते है। चैत्रा कृष्ण बारह से पडवा तक मेले में पांच दिन तक पद यात्रियों का रेलम-पेल रहता है इस चरण में वाहनों से यात्री कम आते है एवं अधिकतर उत्तरप्रदेश के यात्री होते है। द्वितीय चरण में नवरात्रा स्थापना से तृतीया तक दिल्ली, हरियाणा के यात्रियों का जमावडा रहता है। इस दौरान गाडियों से यात्रियों के आने की शुरूआत हो जाती है। तीसरे चरण में चतुर्थी से छटवीं तक मध्यप्रदेश एवं धौलपुर क्षेत्रा के यात्री आते है। इस दौरान ट्रक्टर ट्रोलियों का उपयोग अधिक देखने को मिलता है।
चौथा चरण सप्तमी से नवमीं तक होता है इसमें गुजरात, मुम्बई व दक्षिण भारतीय राज्यों के यात्री अधिक आते है। अन्तिम चरण में राजस्थान भर के यात्राी एवं स्थानीय लोग लांगुरिया गाते हुए आते है। यह दसमीं से पूर्णिमा तक चलता है।
कैसे पहुंचे कैलादेवी करौली मंदिर (How to reach Kaila Devi Karauli Temple)
करौली जिले का यह कस्बा पूर्ण रूप से सड़क परिवहन से जुड़ा हुआ है. जयपुर आगरा नेशनल हाइवे पर स्थित महुआ कस्बे से यहाँ की दूरी तक़रीबन 95 किलोमीटर है. महुआ से कैलादेवी के लिए राज्य राजमार्ग 22 सीधा जाता है. राजस्थान रोडवेज अथवा निजी टैक्सी वाहन के जरिये इस मन्दिर तक पंहुचा जा सकता है.
यदि रेलमार्ग की बात करे तो वेस्टर्न रेलवे जोन के दिल्ली मुंबई रेलवे लाइन पर सवाईमाधोपुर की हिंडोन शहर से यह 55 किलोमीटर तथा गंगापुर शहर से 48 किलोमीटर की दूरी पर है.
दूर के राज्यों अथवा विदेशी जातरू कैलादेवी आने के लिए हवाई रूठ को चुन सकते है. यहाँ नजदीकी हवाई अड्डा जयपुर है. कैलादेवी की जयपुर से दूरी तक़रीबन 200 किमी है. जिन्हें बस के द्वारा पूरा किया जा सकता है.
कैलादेवी मेला
कैलादेवी मन्दिर करौली में स्थित है. यहाँ पर मार्च अप्रैल महीने में विशाल मेला भरता है. जहाँ लाखों की तादाद में देशी विदेशी यात्री माँ के दर्शन करने के लिए आते है. कैलादेवी के मेले में लिंगुरिया गीत गाये जाते है.
त्रिकूट मंदिर की मनोरम पहाड़ियों की तलहटी में स्थित देवी का मुख्य मंदिर संगमरमर के पत्थर पर बनाया गया है. सिंह की सवारी में माता की मुख्य प्रतिमा लगी हुई है. भक्तगण अपनी मन्नते पूरी करवाने के लिए माथा टेकते है.
करौली से २४ किमी तथा कैला गाँव से 2 किमी की दूरी पर कालीसिल नदी के तट पर माँ का धाम हैं. कैला देवी करौली के यादव वंश की कुलदेवी मानी जाती हैं. भक्त लिगुरिया गीत गाकर माँ को प्रसन्न करते हैं.
चैत्र माह के नवरात्र में देवी दुर्गा के शक्ति रूपों की पूजा करने की परम्परा हैं. राजस्थान के करौली का कैला मैया का मेला छोटे कुंभ की तरह बड़ा धार्मिक संगम हैं, त्रिकुट पहाड़ी पर चंबल नदी के बीहड़ के कैला माँ के धाम में वर्ष के १२ महीनों भक्तो का ताँता लगा रहता हैं. मगर चैत्र माह का मेले में देशभर से लाखों श्रद्धालु पहुचते हैं.
मां कैलादेवी की मुख्य प्रतिमा के साथ मां चामुण्डा की प्रतिमा कैलादेवी मन्दिर में स्थापित हैं. हजारों वर्ष पुराना इस टेम्पल का इतिहास हैं. बताते है कि स्थानीय शासक रघुदास जी ने लाल पत्थरों से इस मन्दिर का निर्माण करवाया था. बाद के रणथम्भौर के खीची राजपूत शासकों के क्षेत्र में आता था.
खींची राजा मुकन्ददास ने सन् 1116 में मंदिर की सेवा, सुरक्षा का दायित्व राज कोष पर लेकर नियमित भोग-प्रसाद और नित्य पूजा अर्चना का प्रबंध किया था इसके बाद यह मन्दिर करौली के यादव राज वंश के अधिकार में आ गया.
मां के अवतरण की गाथा
धर्म ग्रंथों के अनुसार सती के अंग जहां-जहां गिरे वहीं एक शक्तिपीठ का उदगम हुआ। उन्हीं शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ कैलादेवी है। कहा जाता है कि बाबा केदागिरी ने तपस्या के बाद माता के श्रीमुख की स्थापना इस शक्तिपीठ के रूप में की। ऐतिहासिक साक्ष्यों एवं किवदन्तियों के अनुसार प्राचीनकाल में कालीसिन्ध नदी के तट पर बाबा केदागिरी तपस्या किए करते थे यहां के सघन जंगल में स्थित गिरी -कन्दराओं में एक दानव निवास करता था जिसके कारण संयासी एवं आमजन परेशान थे। बाबा ने इन दैत्यों से क्षेत्रा को मुक्त कराने के लिए हिमलाज पर्वत पर आकर घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर माता प्रकट हो गई। बाबा ने देवी मां से दैत्यों से अभय पाने के लिए वर मांगा। बाबा केदारगिरी त्रिकूट पर्वत पर आकर रहने लगे। कुछ समय पश्चात देवी मां कैला ग्राम में प्रकट हुई और उस दानव का कालीसिन्ध नदी के तट पर वध किया। जहां एक बडे पाषाण पर आज भी दानव के पैरों के चिन्ह देखने को मिलते है। इस स्थान का नाम आज भी दानवदह के नाम से जाना जाता है।
एक अन्य किवदन्ती के अनुसार त्रिकूट पर्वत पर बहूरा नामक चरवाहा अपने पशुओं को चराने ले जाता था एक दिन उसने देखा की उसकी बकरियां एक स्थान विशेष पर दुग्ध सृवित कर रही है इस चमत्कार ने उसे आश्चर्य मेें डाल दिया। उसने इस स्थल की खुदाई की तो देवी मां की प्रतिमा निकली। चरवाहे ने भक्तिपूर्वक पूजन कर ज्योति जगाई धीरे-धीरे प्रतिमा की ख्याति क्षेत्रा में फैल गई। आज भी बहूरा भगत का मंदिर कैलादेवी मुख्य मंदिर प्रांगण में स्थित है।
कैला देवी माता का मेला कब और कहाँ भरता हैं
हिन्दू कलैंडर के अनुसार चैत्र माह के नवरात्र में कैला मैया का मेला 15 दिनों तक चलता है जो अंग्रेजी माह के अनुसार अप्रैल के महीने में आयोजित होता हैं यहाँ राजस्थान के अलावा यूपी दिल्ली, हरियाणा पंजाब तथा गुजरात से बड़ी मात्रा में सैलानी अपनी मनोकामनाएं लेकर माँ के दरबार में हाजरी लगाते हैं. मेले के पहले पांच दिनों तथा आखिरी के चार दिनों में विशेष रौनक देखने को मिलती हैं.
नवरात्र के दौरान करौली के सभी सड़क मार्गों पर हाथ में ध्वजा लिए लिगुरियां गीत गाते भक्तों के हुजूम हर कोई दिखाई देते हैं. करौली जिला प्रशासन द्वारा मंदिर ट्रस्ट भी कैला देवी मन्दिर के प्रबंध की सम्पूर्ण इंतजाम करते हैं, इस दिन कालीसिल नदी में स्नान करना पुण्यदायक माना जाता हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 35 से 45 तक श्रद्धालु हर वर्ष कैला देवी मंदिर में दर्शन के लिए आते हैं.
कैला मैया मेला परम्परा इतिहास व कहानी
इस मेले में महिला श्रद्धालु हरे रंग की चूड़ियाँ तथा सिंदूर अवश्य खरीदती हैं हिन्दू मान्यता के अनुसार इसे सुहाग का प्रतीक माना गया हैं. यादव समुदाय में नव दम्पति जोड़े में दर्शन करने के लिए इस मन्दिर आते हैं तथा बालकों का मुंडन भी करवाया जाता हैं. मेले की मुख्य तिथियों पर ढोल नगाड़ों की गूंज तथा लागुरियां गीत के स्वर भक्तों को मंत्र मुग्ध कर देते हैं. मेले की मान्यता के अनुसार यात्राी चरणबद्व रूप से आते है। चैत्रा कृष्ण बारह से पडवा तक मेले में पांच दिन तक पद यात्रियों का हुजूम उमड़ा रहता हैं. यह मेला यह दसमीं से पूर्णिमा तक चलता है.
कैला देवी मां की पूजा विधि
कैला देवी मेले के दौरान 2 लाख से अधिक तीर्थयात्री इस स्थान पर आते हैं। कैला देवी मेले के वक्त यहां भक्तों के लिए 24 घंटे भंडार और उनके आराम करने की व्यवस्था की जाती है। किन्तु कुछ भक्त ऐसे भी होते हैं जो बिना कुछ खाय-पिए, बिना आराम किए इस कठोर यात्रा को पूरा करते है।
मीना समुदाय के लोग आदिवासियों के साथ मिलकर नाचते-गाते इस यात्रा को पूरा करते हैं। भक्त नकद, नारियल, काजल (कोहल), टिककी, मिठाई और चूड़ियां देवी को प्रदान करते हैं यह सब समान भक्त अपने साथ लेकर आते हैं।
मंदिर में सुबह-शाम आरती भजन किया जाता है। कहा जाता है कि माता को प्रसन्न करने का एक ही तरीका है लांगूरिया भजन को गाना। भक्त माता की भक्ति में लीन होकर नाचते-गाते हुए उनका आशीर्वाद ग्रहण करते हैं।
कथा एवं मान्यताएँ व इतिहास
- पौराणिक कथाओं के अनुसार माना जाता है, कि कंस द्वारा देवकी व वासुदेव को जब कैद किया गया था. उसी काराग्रह में इस कन्या ने जन्म लिया था. एक ऋषि के आग्रह पर वह त्रिकुट पर्वत पर आई और तभी से उनका यहाँ से नाता जुड़ गया.
- चैत्र माह में उत्तर भारत के बड़े मेलों में से एक कैलादेवी के मेले में कड़ाके की ठंड के बिच भक्त मुरादे लेकर आता है. लोगों का विश्वास है, कि जो भी यहाँ आता है वो खाली हाथ नही लौटता है.
- सूनी गोद भरने की आस हो या सुहाग की चिरायु होने की कामना, कैलादेवी पूरी करती है. इसी कारण यहाँ हर रोज सैकड़ों दम्पति अपने नवजात का झडूला संस्कार करने के लिए लाते है. हर सुहागिन स्त्री माँ के दरबार से जाते वक्त अमर चूड़ियाँ अपने साथ ले जाना नही भूलती है.
- कहा जाता है, कि प्राचीन काल में यह त्रिकुट का इलाका घने वन से घिरा हुआ था, यहाँ एक नरकासुर नाम का राक्षस रहा करता था. उसके अत्याचार से जनता बेहद त्रस्त थी. इस अत्याचारी से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने माँ दुर्गा की उपासना की. तथा कैलादेवी के रूप में माँ दुर्गा ने अवतार लेकर उस अत्याचारी राक्षस का अंत किया.
- इस मन्दिर के बारे में यह रोचक बात है, कि यहाँ करौली व सवाईमाधोपुर के बड़े खूंखार डाकू माँ की पूजा करने आते है. प्रशासन उनके साथ हरसंभव सख्ती बरतने की व्यवस्था करने के उपरांत भी वे उन्हें नही रोक पाते है. डकैत लोगों भी माँ के आंगन में आकर कुछ समय के लिए ही सही सच्चे इंसान बन जाते है. तथा किसी श्रद्धालु के साथ किसी किस्म का दुर्व्यवहार नही करते है.
- भगवान् राम के गुरु महर्षि विशिष्ट के वंशज कहे जाने वाले कटारे हिन्दू आबादी यहाँ बहुल है. जिनमें गुप्ता, माथुर, वैश्य मुख्य है. ये नार्थ इंडिया व पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों में रहते है. ये कैलादेवी को अपनी कुलदेवी के रूप में स्वीकार करते है.
क्यों है कैला देवी मंदिर की इतनी महिमा
राजस्थान के करौली जिले में स्थित कैला देवी मंदिर से भक्तों की अपार श्रद्धा जुड़ी हुई है जिसका कारण है यहां पर उनकी मनोकामना पूरी होना।
यह कैला देवी मंदिर का ही चमत्कार है कि यहां पर जो भी भक्त आकर के सच्चे मन से अपनी मनोकामना को माता कैला देवी से पूरी होने की अरदास लगाता है, उसकी मनोकामना माता कैला देवी अवश्य पूरी करती हैं और यही वजह है कि लोगों के बीच इस मंदिर को लेकर के अपार श्रद्धा है और यही इस मंदिर की इतनी महिमा का मुख्य कारण भी है।
यह कैला देवी मंदिर का ही चमत्कार है कि, राजस्थान का करौली जिला वर्तमान के समय में पूरी दुनिया भर में फेमस हो गया है और हर साल यहां पर भक्तों की भारी भीड़ माता कैला देवी मंदिर का दर्शन करने के लिए आती है जिसके कारण स्थानीय लोगों को रोजगार भी प्राप्त हो रहा है और भक्तों की मनोकामनाएं भी पूरी हो रही है।
माता कैला देवी मंदिर की स्थापत्य कला
ऐतिहासिक किताबों के अनुसार देखा जाए तो मध्यकालीन के आसपास माता कैला देवी के इस मंदिर का निर्माण होना माना गया है। ऐसा माना गया है कि राजा भोमपाल जोकि त्रिकूट पर्वत पर रहते थे, उन्होंने ही 1600 ईसवी में माता कैला देवी के इस मंदिर का निर्माण करवाया था।
इस मंदिर की शैली नागर है। जब आप इस मंदिर में प्रवेश करते हैं तो आपको मंदिर के गर्भ गृह में जाने पर माता कैला देवी की एक अद्भुत और प्रकाशवान मूर्ति दिखाई देती है।
इस मंदिर में निर्माण करने के लिए लाल पत्थर का इस्तेमाल किया गया है जो कि राजस्थान के करौली जिले में काफी भारी मात्रा में पाए जाते हैं। इसलिए यह मंदिर हल्के लाल रंग का दिखाई देता है और रात में यह मंदिर लाइट की फुलझड़ीयो के कारण बहुत ही मनोरम प्रतीत होता है।
कैला देवी का लक्खी का मेला
बता दें कि जिस प्रकार हर बड़े मंदिर पर साल में एक बार मेले का आयोजन होता है उसी प्रकार कैला देवी मंदिर में भी मेले का आयोजन होता है जिसे लक्खी का मेला कहा जाता है। यह मेला चैत्र मास की द्वादशी से चालू होता है और उसके बाद लगातार 15 दिनों तक इस मेले का आयोजन चलता रहता है।
इस मेले में हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों के लोग भी आते हैं जो यहां पर आने के बाद सबसे पहले मंदिर के पास में ही स्थित कालीसिल नदी में स्नान करते हैं और स्नान करने के बाद साफ स्वच्छ कपड़े पहन कर के माता कैला देवी के दर्शन करते हैं, उसके बाद मेले का आनंद उठाते हैं।
मेले में कई लोग अपनी विशेष मन्नत पूरी करवाने के लिए भी आते हैं। इसके अलावा कई लोग यहां पर आ कर के अपने बच्चों का मुंडन करवाते हैं और माता कैला देवी की पूजा करते हैं। इस मेले में राजस्थान की कई ऐतिहासिक चीजों की बिक्री अलग-अलग लोगों के द्वारा की जाती है।
कैला देवी मन्दिर में दर्शन का समय
अगर कैला देवी मंदिर की इतनी महिमा सुनने के बाद आप यहां पर जाने का प्रोग्राम बना रहे हैं तो आपको यह पता कर लेना चाहिए कि कैला देवी माता के मंदिर में दर्शन का समय क्या है। बता दें कि पुजारी के द्वारा हर सुबह 4:00 बजे के आसपास इस मंदिर के द्वार को खोल दिया जाता है, ताकि भक्त लोग माता कैला देवी के दर्शन कर सकें।
यह मंदिर सुबह 4:00 बजे से लेकर के रात को 9:00 बजे तक खुला रहता है। हालांकि ऐसे श्रद्धालुओं जो दूर से इस जगह पर माता जी के दर्शन करने के लिए आते हैं उन्हें सुबह 4:00 बजे से लेकर के 6:00 बजे तक दर्शन कर लेना चाहिए ताकि वह अगर वापस अपने घर उसी दिन जाना चाहे तो जा सके।
दर्शन के बाद ठहरने की व्यवस्था
दूर से आने वाले भक्तों के लिए यहां पर आपको मंदिर के आस-पास में ही ठहरने की व्यवस्था आज के समय में मिल जाएगी क्योंकि अब इस मंदिर को स्थानीय लोगों के द्वारा काफी ज्यादा डिवेलप किया जा रहा है। इसीलिए आपको यहां पर कई धर्मशाला और छोटे-मोटे होटल ठहरने के लिए मिल जाएंगे।
मंदिर में स्थापित माताजी की मूर्ति का दृश्य
जब आप इस मंदिर में दर्शन करने के लिए जाएंगे तब आपको यहां पर माता की दो प्रकार की मूर्तियां दिखाई देंगी, क्योंकि इस मंदिर में इनकी दो मूर्तियां स्थापित की गई है। इसमें से जो माता कैला देवी की मूर्ति है उसका जो मुंह है वह थोड़ा सा तिरछा दिखाई देता है।
ऐसा कहा जाता है कि यह मूर्ति यहां पहले नहीं थी बल्कि यह मूर्ति पहले नगरकोट में स्थापित थी और वहां पर विदेशी हमलावरों के डर के कारण वहां के पुजारियों ने इस मूर्ति को वहां से उठाकर के यहां पर लाकर स्थापित कर दिया। इस मंदिर के अंदर आपको दूसरी मूर्ति माता चामुंडा देवी की मिलती है जिनकी पूजा हर रोज माता कैला देवी के साथ ही यहां पर की जाती है।
माता की एक मूर्ति का मुंह तिरछा होने का कारण
हमने आपको बताया कि यहां पर माता जी की दो मूर्तियां स्थापित हैं जिसमें से एक मूर्ति का मुंह तिरछा है जिसके पीछे ऐसी मान्यता है कि एक बार यहां पर माताजी का कोई परम भक्त उनका दर्शन करने के लिए आया था और वापस जाते समय उसने माताजी से यह वादा किया था कि वह फिर से बहुत जल्द ही उनके दर्शन करने के लिए आएगा।
परंतु किसी ना किसी कारण की वजह से उनका वह भक्त दोबारा माता जी के दर्शन करने नहीं आ सका और तब से ही माताजी उस भक्त के इंतजार में उस दिशा की ओर देख रही है जिस दिशा की ओर उनका भक्त गया था और इसी कारण माता जी की मूर्ति का मुंह आज भी टेढ़ा है जो इस बात को व्यक्त करता है कि माता जी आज भी अपने उस गए हुए भक्त का इंतजार कर रही हैं।
चमत्कारिक है कालीसिल नदी
माता कैला देवी के मंदिर के पास ही एक कालीसिल नदी मौजूद है जो अपने चमत्कारों के कारण पूरी दुनिया भर में विख्यात है। ऐसी मान्यता है कि जो भी भक्त माता कैला देवी के दर्शन करने के लिए यहां पर आता है उसे सबसे पहले इस नदी में स्नान करके अपने आप को शुद्ध करना पड़ता है और उसके बाद ही वह माता कैला देवी के दर्शन अगर करता है तो उसका दर्शन संपूर्ण माना जाता है।
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