बेडरूम में कभी ना लगाएं आइना क्योंकि…
दर्पण या आइना हमें हमारे व्यक्तित्व की झलक दिखाता है। सजना संवरना हर मनुष्य की सामान्य प्रवृति है। आइने के बिना अच्छे से सजने-संवरने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। दिन में कई बार हम खुद को आइने में देखते हैं। इसी वजह आइना ऐसी जगह लगाया जाता है जहां से हम आसानी से खुद को देख सके। आइना कहां लगाना चाहिए और कहां नहीं इस संबंध में विद्वानों और वास्तुशास्त्रियों द्वारा कई महत्वपूर्ण बिंदू बताए गए हैं।
दर्पण के संबंध में एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बेड रूम में आइना लगाना अशुभ है। ऐसा माना जाता है कि इससे पति-पत्नी को कई स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां झेलनी पड़ती है। यदि पति-पत्नी रात को सोते समय आइने में देखते हैं तो इसका उनकी सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यह वास्तु दोष ही है। इससे आपके आर्थिक पक्ष पर बुरा प्रभाव पड़ता है। साथ ही पति-पत्नी दोनों को दिनभर थकान महसूस होती है, आलस्य बना रहता है। इसी वजह से वास्तु के अनुसार बेड रूम में आइना न लगाने की सलाह दी जाती है या आइना ऐसी जगह लगाएं जहां से पति-पत्नी रात को सोते समय आइने में न देख सके।
नए कपड़े खरीदे शुक्रवार को क्योंकि…
सजने संवरने का शोक हर इंसान को होता है। इसीलिए हर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को और अधिक निखारने के लिए अच्छे से अच्छे कपड़ों का चुनाव करता है। नए कपड़े पहनकर फिलगुड तो सभी करते हैं लेकिन ज्योतिष के अनुसार यदि नए कपड़े शुक्रवार के दिन खरीदें जाएं या नए कपड़े शुक्रवार को पहने जाएं तो उसके अनेक लाभ है।
ज्योतिष के अनुसार हर कार्य के लिए एक विशेष वार बताया गया है। शुक्रवार को कपड़ों की खरीदी के लिए विशेष वार माना गया है। जबकि शनिवार को नए वस्त्र खरीदना व रविवार को नए वस्त्र धारण करना अच्छा नहीं माना जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि ज्योतिष के अनुसार शुक्र को धन, ऐश्वर्य व सुख, वस्त्र का कारक ग्रह माना जाता है।
मान्यता है कि शुक्रवार को नए कपड़े खरीदने पर शुक्र प्रसन्न होते हैं व उनकी विशेष कृपा प्राप्त होती है। इस दिन नए कपड़े खरीदने से वस्त्र पहनने से वो लंबे समय तक साथ निभाते हैं। साथ ही शीघ्र ही वस्त्र लाभ होता है। यानी शुक्रवार को वस्त्र खरीदने से वस्त्र लक्ष्मी प्रसन्न होती है और खरीदने वाले के पास हमेशा वस्त्र समृद्धि बनी रहती है। इसीलिए शुक्रवार के दिन नए कपड़े खरीदने चाहिए।
तो इसलिए उपवास के समय खाली पेट रहना भी ठीक नहीं
उपवास को हिन्दू धर्म में बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। मान्यता है कि उपवास से तन व मन दोनों की ही शुद्धि होती है। लेकिन अधिकतर लोग दो तरह के उपवास करते हैं। कुछ लोग उपवास में बिल्कुल निराहार ही रहते हैं। जबकि दूसरी तरह के उपवास में अत्याधिक वसा से युक्त भोजन ग्रहण करते हैं। जबकि हमारे ऋषि-मुनि भी उपवास के समय पूरी तरह बिना आहार के नहीं रहते थे। अनुशासित दिनचर्या के साथ ही वे फलाहार ग्रहण करते थे।
वे उपवास काल में ज्यादा से ज्यादा समय मौन रहते थे। इसीलिए उनकी उपवास पद्धित से मन व तन दोनों की शुद्धि होती थी व उन्हें उपवास के पूर्ण परिणाम प्राप्त होते थे। उपवास के समय पूरी तरह भूखा भी नहीं रहना चाहिए क्योंकि इससे अपच, कब्ज व एसीडिटी जैसी पेट से जुड़ी अनेक परेशानियां हो सकती है। साथ ही बार-बार इसी पद्धति से उपवास करने से पाचन तंत्र कमजोर होने के साथ ही हाइपर एसीडिटी की समस्या हो सकती है। अगर आप भी चाहते हैं कि आपको उपवास का पूरा परिणाम प्राप्त हो तो इन बातों पर जरूर ध्यान दें।
– उपवास के एक या दो दिन पहले से ही भोजन पर विशेष ध्यान दें।
– यदि एक समय भोजन करें तो ज्यादा ना खाएं।
– उपवास के बीच सुबह-शाम प्राणायाम करना ठीक रहता है।
– उपवास काल में शारीरिक और मानसिक आराम को भी पूरी तरजीह देनी चाहिए।
– उपवास काल में मौन व्रत रखना भी अच्छा रहता है।
– स्थिति के अनुसार उपवास काल में स्पंज बाथ, मिट्टी की पट्टी, भ्रमण करना, आसन, कुंजर आदि चिकित्सा का सहारा लेना ठीक रहता है।
– नींबू-पानी, शहद या केवल दो-तीन गिलास पानी पीने से ही पेट की समस्या मिट जाया करती है।
ऐसा क्यों: मंदिर में बैठकर ही करना चाहिए दर्शन?
मंदिर जाने से सभी को मानसिक शांति व सुख महसूस होती है। इसीलिए लोग नियमित रूप से देवालय जाते हैं। किसी भी मंदिर में भगवान के होने की अनुभूति प्राप्त की जा सकती है। भगवान की प्रतिमा या उनके चित्र को देखकर हमारा मन शांत हो जाता है। हर व्यक्ति भगवान के मंदिर अनेक तरह की प्रार्थनाएं और समस्याएं लेकर जाता है। भगवान के सामने सपष्ट रूप से अपने मन के भावों को प्रकट कर देने से भी मन को शांति मिलती है, बेचैनी खत्म होती है।
लेकिन देवालय जाकर बहुत से लोगों की आदत होती है कि वे खड़े-खड़े दर्शन करते है। जबकि शास्त्रों के अनुसार यह गलत है। इसलिए मंदिर जाएं तो यह ध्यान रखें कि मंदिर में भगवान की मूर्ति के दर्शन हमेशा बैठकर करें। साथ ही दर्शन करते समय यह ध्यान रखें सबसे पहले मूर्ति के चरणों को देखें नतमस्तक होकर प्रार्थना करें।
फिर देवता के वक्ष पर, अर्थात् अनाहतचक्रपर मन एकाग्र करें व अंत में देव मूर्ति के नेत्रों की देखें व उनके रूप को अपने नेत्रोंमें बसाएं। मंदिर में कुछ भी मांगने या प्रार्थना करते समय दान लेने की, क्षमा याचना या आशीर्वाद लेने की अवस्था में बैठकर प्रार्थना करें। इससे आपकी हर मुराद तो शीघ्र ही पूरी होगी। साथ ही मंदिर जाने के पूर्ण सकारात्मक परिणाम भी मिलने लगेंगे।
शादी को धार्मिक संस्कार क्यों माना गया है?
वेदों के अनुसार हमारी समाजिक व्यवस्था में विवाह के तीन उद्देश्य माने गए हैं। धर्म,प्रजा और रति,। आजकल शादी का पहला उद्देश्य है विषय भोग, विषय भोग के साथ संतान आ जाती है। दूसरा उद्देश्य है धर्म का पालन व तीसरा है समाज के लिए धर्म पालन। समाज ने जो भी नियम कायदे बनाए हैं उन सभी का पालन शादी के बाद ही संभव है। लेकिन वैदिक व्यवस्था के अनुसार शादी का सबसे मुख्य उद्देश्य धर्म का पालन व सामाजिक व्यवहारों का पालन करना होता है।
यह माना जाता है कि हर व्यक्ति तीन तरह के ऋण से दबा हुआ है। ऋषि ऋण, पितृ ऋण, देव ऋण,। हमारे ऋषियों ने यह ज्ञान हम तक पहुंचाया है। उन ऋषियों के लिए हम ऋणी है। समाज के विद्वान लोग हमारे सामाजिक व्यवहार को बनाए रखते हैं, इसलिए हमें देवों के भी ऋणी है। माता-पिता जिन्हें हमें जन्म दिया, इसलिए हम माता-पिता के ऋणी हैं। वेदों में माना गया है कि जिन्होंने हमें जन्म दिया वैसे हमें भी विवाह करके परिवार और समाज को आगे बढ़ाकर पितृ ऋण चुकाना होता है।
इसीलिए इस तरह वंश को आगे बढ़ाना हमारा धर्म और कर्तव्य दोनों है। इसलिए वेदों के अनुसार विवाह एक धार्मिक संस्कार है। इसीलिए संस्कार के तौर पर अनेक विधि-विधान किए जाते हैं। अग्रि के चारों तरफ फेरे, सप्तपदी, आदि रस्में निभाई जाती है क्योंकि वेदों के अनुसार ये जन्म-जन्मातर का अटूट संबंध है।
तो इसलिए हम प्रार्थना करते हैं
प्राचीन समय से ही मनुष्य मुसीबतों से बचने के लिए प्रार्थना करता आया है। किसी भी किए गए कर्म का फल प्राप्त करने के लिए प्रार्थना की जाती है। विश्व के हर कोने में लोग प्रार्थना करते हैं। सुबह के समय अधिकतर लोग ईश्वर की प्रार्थना इसीलिए करते हैं ताकि पूरा दिन सुखद रहे। स्कुलों में बच्चे सामुहिक रूप से प्रार्थना करके पढ़ाई करते हैं। इसी तरह लोग अपनी -अपनी आजीविका चलाने के कार्य प्रारंभ करने पहले प्रार्थना करते हैं।
दरअसल प्रार्थना से परमेश्वर को प्रसन्न करने का प्रयास किया जाता है। जिससे शक्ति का संचार होता है। आत्मबल बढ़ता है और मानसिक शांति मिलती है। प्रार्थना से आशा व आकांक्षा जुड़ी होती है। शुद्ध मन से एकाग्रता व श्रद्धा के साथ की गई प्रार्थना से मनोवांछित फल मिलता है। इसके पीछे कारण यही है कि मनुष्य का जीवन पूरी तरह उसकी सोच व विश्वास से जुड़ा है। जो जैसा सोचता है जो सोचता है और उसके लिए पूरे आत्मबल के साथ कोशिश करता है। वह उसी ओर बढऩे लगता है। प्रार्थना से मनोबल बढऩे के साथ ही हमारा मन सकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है व कार्य करने की और मुसीबतों से जुझने की शक्ति मिलती है। इसीलिए हम प्रार्थना करते हैं।