Bacchon Ki Kahaniyan – New 25+ Best Bacchon Ki Kahaniyan | बच्चों की कहानियां इस पोस्ट में दे रहे हेलो दोस्तों आज हम छोटे बच्चों की कहानियां के बारे में जानेंगे। इन कहानियों को पढ़कर बच्चों को बहुत ही अच्छी शिक्षा मिलेगी और उनका साथ की साथ मनोरंजन भी होगा। अक्सर छोटे बच्चे कहानियों के बहुत ही शौकीन होते है और उन्हें कहानियाँ बहुत ही अच्छी लगती है। बच्चे कहानियों के बारे में सुनने में बहुत ही उत्साहित होते है। और उन्हें इनके बारे में जानना अच्छा लगता है। आप इन कहानी को रात को सोते वक़्त बच्चों को सुना सकते है। तो आए जानते है Chhote Bacchon Ki Kahaniyan के बारे में।
1- बंदर और उल्लू की कहानी (Bacchon Ki Kahani)
एक वृक्ष पर एक उल्लू रहता था। उल्लू को दिन में दिखाई नहीं पड़ता। इसीलिए वह दिन-भर अपने घोंसले में छिपा रहता है। और जब रात होती है, तो वे शिकार के लिए बाहर निकलते है। गर्मी के दिन थे, दोपहर का समय। आकाश में सूर्य आग के गोले की तरह चमक रहा था। बड़े जोरों को गर्मी पड़ रही थी।
कहीं से एक बंदर आया और वृक्ष की डाल पर बैठकर बोला, “ओह, बड़ी भीषण गर्मी है। आकाश में सूर्य आग के गोले कौ तरह चमक रहा है।” बंदर की बात उल्लू के भी कानों में पड़ी! वह बोल उठा, “क्या कह रहे हो? सूर्य चमक रहा है। बिलकुल झूठ। चंद्रमा के चमकने की बात कहते तो मान भी लेता।”
बंदर बोला, “चंद्रमा तो दिन में चमकता नहीं, रात में चमकता है। इस समय दिन है। दिन में सूर्य ही चमकता है। सूर्य का प्रकाश जब तीक्र रूप से फैल जाता है तो भयानक गर्मी पड़ती है। आज सचमुच बड़ी भयानक गर्मी पड़ रही है।” बंदर ने उल्लू को समझाने का बड़ा प्रयल किया कि आकाश में सूर्य चमक रहा है और उसके कारण भयानक गर्मी, पड़ रही है, पर उल्लू अपनी बात पर अड़ा रहा।
बंदर के अधिक समझाने पर भी वह यही कहता रहा कि न तो सूर्य है, न सूर्य का प्रकाश है और न गर्मी पड़ रही है। उल्लू और बंदर दोनों जब देर तक अपनी-अपनी बात पर अड़े रहे थे, तो उल्लू ने अपने दोस्तों के पास चल कर निर्णय करने का विचार किया। बंदर ने उल्लू की बात मान ली। उल्लू उसे साथ लेकर दूसरे वृक्ष पर गया।
दूसरे वृक्ष पर सैकड़ों उल्लू रहते थे। उल्लू ने अपने जाति-भाइयों को एकत्र करके कहा, “भाइयो, इस बंदर का कहना है, इस समय दिन है और आकाश में सूर्य चमक रहा है। आप लोग ही निर्णय करें, इस समय दिन है या नहीं, और आकाश में सूर्य चमक रहा है या नहीं।”
उल्लू की बात सुनकर उसके जाति-भाई बंदर पर हँस पढ़े और उसका उपहास करते हुए बोले, “क्या कह रहे हो जी, आकाश में सूर्य चमक रहा है? बिलकुल अंधे हो। हमारी बस्ती में ऐसो झूठी बात का प्रचार मत करो।” पर बंदर अपनी बात पर ठान था। बंदर की बात सुनकर सभी उल्लू कुपित हो उठे और बंदर को मारने के लिए झपट पढ़े।
बंदर प्राण बचाकर भाग चला। कुशल था कि दिन होने के कारण उल्लुओं को दिखाई नहीं पड़ रहा था। उधर दिन होने के कारण बंदर को दिखाई पड़ रहा था। उसने सरलता से भागकर उल्लुओं से अपनी रक्षा कर ली।
Moral – जहाँ मूर्खों का बहुमत होता है, वहां इसी प्रकार सत्य को भी असत्य सिद्ध कर दिया जाता है।
2- बड़ा सोचो | बच्चों की नई कहानियां
गरीब परिवार का एक युवक बहुत दिनों से नौकरी की तलाश में था। अपने शहर में बात न बनते देख उसने दूसरे शहर में किस्मत आज़माने का निर्णय लिया। अगले ही दिन ट्रेन का टिकट कटा वह दूसरे शहर के लिए निकल गया। उसकी माँ ने उसके लिए एक टिफ़िन बॉक्स में रोटियाँ रख दी थी। गरीबी के कारण हर दिन उसके घर में सब्जी नहीं बनती थी। इस कारण उसके टिफ़िन बॉक्स में बस रोटियाँ ही थी।
आधा सफ़र तय कर लेने के बाद उसे भूख लगने लगी, तो उसने अपना टिफ़िन बॉक्स निकाला और उसमें रखी रोटियाँ खाने लगा। वह जिस तरह से रोटी खा रहा था, उसने आस-पास बैठे लोगों का ध्यान खींच लिया। वह पहले रोटी तोड़ता, उसके बाद उसे टिफ़िन में कुछ इस तरह घुमाकर मुँह में डालता, मानो वह रोटी के साथ कुछ और भी खा रहा है।
लोग उसे हैरत से देख रहे थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वो ऐसा क्यों कर रहा है? काफ़ी लोग तो बस उसे यूं ही देखते रहे। लेकिन एक व्यक्ति से रहा न गया और वह पूछ बैठा, “भाई, तुम्हारे टिफ़िन बॉक्स में बस रोटियाँ ही हैं और उसे तोड़कर इस तरह टिफ़िन में घुमाकर मुँह में क्यों डाल रहे हो।”
युवक बोला, “ये सच है भाई की मेरे पास बस रोटियाँ ही है। लेकिन मैं इसे खाली टिफ़िन में घुमाकर सोच रहा हूँ कि मैं इसके साथ अचार खा रहा हूँ।” उस व्यक्ति ने जिज्ञासावश पूछा “ऐसा करने से क्या तुम्हें अचार का स्वाद आ रहा है?”
युवक मुस्कुराते हुए बोला “हाँ बिल्कुल, अपनी सोच में तो मैं रोटी-अचार खा रहा हूँ और इस सोच के कारण मुझे उसका स्वाद आ भी रहा है।” जब यह बात आस-पास बैठे यात्रियों ने सुनी, तो उनमें से एक बोल पड़ा, “भाई, जब तुम्हें सोचना ही था, तो अचार ही क्यों सोचा? मटर पनीर या शाही पनीर सोच लेते। इस तरह तुम उनका स्वाद ले पाते। सोचना ही था, तो छोटा क्यों बड़ा सोचते।”
Moral – जीवन में यदि कुछ बड़ा करना है, तो अपनी सोच बड़ी करो। सपने बड़े होंगे, तभी सफ़लता भी बड़ी होगी। बड़ा सोचो।
3- स्त्री का विश्वास | बच्चों की रात की कहानियां
एक गाँव में एक ब्राह्मण अपने पत्नी के साथ रहता था। पत्नी मुँहफट थी। इसलिए ब्राह्मण के कुटुम्बियों संग उसकी बनती नहीं थी। परिवार में सदा कलह का वातावरण बना रहता था। ब्राहमण प्रतिदिन के इस कलह से तंग आ गया आर सोचने लगा कि रोज़-रोज़ की कलह से परदेश जाकर अलग घर बसाकर रहना अच्छा रहेगा। कम से कम शांति से तो जीवन व्यतीत होगा।
यह विचार कर वह कुछ दिनों बाद ब्राह्मणी को लेकर परदेश की यात्रा पर निकल गया। मार्ग में एक घना जंगल पड़ा। लंबी यात्रा के कारण ब्राह्मण और ब्राह्मणी दोनों थक गए थे। ब्राह्मणी का प्यास के कारण बुरा हाल था। ब्राह्मण उसे एक पेड़ के नीचे बिठाकर जल की व्यवस्था करने चला गया। लेकिन जब तक वह जल लेकर लौटा, तब तक ब्राह्मणी ने प्यास के कारण अपने प्राण त्याग दिए थे।
ब्राह्मणी को मृत देखा ब्राहमण बहुत दु:खी हुआ। वह ईश्वर से प्रार्थना करने लगा, “हे ईश्वर, मैं अपनी पत्नी के साथ नया जीवन आरंभ करने परदेश जा रहा था। तूने उसके ही प्राण हर लिए। कृपा कर भगवन मेरी पत्नी में पुनः प्राण फूंक दे।” ब्राहमण की प्रार्थना सुन ईश्वर की आकाशवाणी हुई, “ब्राहमण, यदि तू अपने आधा प्राण ब्राह्मणी को दे देगा, तो वह जी उठेगी।”
ब्राह्मण ने अपना आधा प्राण ब्राह्मणी को दे दिया। ब्राह्मणी पुनः जीवित हो गई। दोनों ने पुनः अपनी यात्रा प्रारंभ कर दी। चलते-चलते दोनों एक नगर के बाहर पहुँचे। वहाँ पहुँचकर ब्राह्मण ने ब्राह्मणी को एक कुएं के पास बैठने को कहा और स्वयं भोजन की व्यवस्था करने चला गया। ब्राह्मणी कुएं के पास गई, तो उसने देखा कि एक लंगड़ा लेकिन सुकुमार युवक रहट चला रहा है।
दोनों ने एक-दूसरे से हंसकर बात की और एक-दूसरे के प्रति आकर्षित हो गये। दोनों अब साथ रहना चाहते थे। इधर जब ब्राह्मण भोजन की व्यवस्था कर लौटा, तो ब्राह्मणी को एक लंगड़े युवक से बातें करते हुए पाया। ब्राह्मण को देखकर ब्राह्मणी बोली, “यह युवक भी भूखा है। इसे भी भोजन में से कुछ अंश दे देते हैं। हमें पुण्य प्राप्त होगा।”
ब्राह्मण ने लंगड़े युवक को अपने साथ भोजन करने आमंत्रित किया। तीनों ने साथ-साथ भोजन किया। भोजन करने के बाद जब प्रस्थान करने का समय आया, तो ब्राह्मणी ब्राह्मण से बोली, “क्यों ना इस युवक को भी अपने साथ ले चले। दो से तीन भले। बात करने के लिए एक अच्छा साथ मिल जाएगा। वैसे भी तुम कहीं जाते हो, तो मैं अकेली रह जाती हूँ। अकेले मुझे भय सताता है। ये रहेगा, तो किसी प्रकार का भय नहीं रहेगा।”
ब्राह्मण बोला, “हम अपना बोझ तो उठा नहीं पा रहे हैं। इस लंगड़े का बोझ कैसे उठायेंगे। मेरी मानो इसे यहीं छोड़ो। हम दोनों आगे बढ़ते हैं।” लेकिन ब्राह्मणी का ह्रदय लंगड़े पर आसक्त हो चुका था। वह कहने लगी, “इसे हम पिटारे में अपने साथ ले चलते हैं। ये भी कहीं न कहीं हमारे किसी काम आ ही जायेगी।” अंततः ब्राह्मण ने ब्राह्मणी की बात मान ली और पिटारे में डालकर लंगड़े को साथ ले लिया।
कुछ दूर जाने के बाद वे पानी पीने के लिए एक कुएं के पास रुके। वहाँ पानी निकालते समय ब्राह्मणी और लंगड़े ने ब्राह्मण को कुएं में धकेल दिया। उन्हें लगा कि ब्राह्मण मर गया है और वे आगे बढ़ गये। कुछ दिनों की यात्रा की पश्चात् वे एक नगर की सीमा पर पहुँचे। लंगड़ा अब भी पिटारी में ही था। सीमा पर उपस्थित पहरेदारों ने ब्राह्मणी को रोक लिया और पिटारे की तलाशी ली। तलाशी में पिटारे में से लंगड़ा बाहर निकला।
दोनों को राजदरबार ले जाया गया। राजदरबार में राजा ने ब्राह्मणी से पूछा, “ये लंगड़ा कौन है? इसे तुम पिटारे में छुपाकर क्यों ला रही थी?” ब्राह्मणी बोले, “ये मेरा पति है। कुटुम्बियों से तंग आकर हम अपना देश छोड़कर परदेश आये हैं। कई लोग मेरे पति के बैरी हो चुके हैं। इसलिए अपने पति को मैं पिटारे में छुपाकर लाई हूँ। कृपा कर आप इस नगर में हमें निवास करने की अनुमति प्रदान कर उपकार करें।”
राजा ने उन्हें नगर में बसने की अनुमति दे दी और दोनों नगर में पति-पत्नी की तरह रहने लगे। उधर कुएं में गिरे ब्राह्मण को कुछ साधुओं ने कुएं से बाहर निकाल लिया था। कुछ दिन साधुओं के साथ रहकर ब्राह्मण उसी नगर में आ गया। जहाँ ब्राह्मणी लंगड़े के साथ रह रही थी। एक दिन ब्राह्मण की ब्राह्मणी से भेंट हो गई, जिसके बाद दोनों में कहा-सुनी होने लगी। बात बढ़कर राजा के समक्ष पहुँची।
राजा ने ब्राह्मणी से पूछा, “ये कौन है?” ब्राह्मणी बोली, “ये मेरे पति का बैरी है। उसे मारने आया है। इसे मृत्यु-दंड दीजिये।” राजा ने ब्राहमण को मृत्यु-दंड की आज्ञा दी, जिसे सुनकर ब्राह्मण बोला, “महाराज! आपका दिया हर दंड मुझे स्वीकार है। लेकिन मेरी एक विनती सुन लीजिये। इस स्त्री के पास मेरा कुछ है। उसे दिलवा दीजिये।”
राजा ने ब्राह्मणी से पूछा, “इस व्यक्ति का कुछ तुम्हारे पास है क्या?” ब्राह्मणी बोली, “नहीं महाराज, मेरे पास इसका कुछ भी नहीं। ये झूठ बोल रहा है।” तब ब्राह्मण बोला, “तूने मेरे प्राणों का आधा भाग लिया है। ईश्वर इसका साक्षी है। ईश्वर से डर स्त्री। अन्यथा, बहुत बुरा परिणाम भोगेगी।” ब्राह्मणी यह बात सुनकर डर गई और बोली, “जो कुछ भी मैंने तुझसे लिया है, वह तुझे वापस करने का मैं वचन देती हूँ।”
यह कहना थी कि ब्राह्मणी नीचे गिर गई और वहीं मर गई। उसके आधे प्राण अब वापस ब्राह्मण में समा गए थे। ब्राहमण ने राजा को समस्त वृतांत कह सुनाया। सारी बात जानने के बाद राजा ने लंगड़े को उसकी करतूत के लिए कारावास में डाल दिया।
Moral – बुरे कर्म का बुरा फल मिलता है।
4- स्वप्न कक्ष | छोटे बच्चों की मजेदार कहानियां
एक शहर में एक परिश्रमी, ईमानदार और सदाचारी लड़का रहता था। माता-पिता, भाई-बहन, मित्र, रिश्तेदार सब उसे बहुत प्यार करते थे। सबकी सहायता को तत्पर रहने के कारण पड़ोसी से लेकर सहकर्मी तक उसका सम्मान करते थे। सब कुछ अच्छा था, लेकिन जीवन में वह जिस सफ़लता प्राप्ति का सपना देखा करता था, वह उसे उससे कोसों दूर था।
वह दिन-रात जी-जान लगाकर मेहनत करता, लेकिन असफ़लता ही उसके हाथ लगती। उसका पूरा जीवन ऐसे ही निकल गया और अंत में जीवनचक्र से निकलकर वह कालचक्र में समा गया। चूंकि उसने जीवन में सुकर्म किये थे, इसलिए उसे स्वर्ग की प्राप्ति हुई। देवदूत उसे लेकर स्वर्ग पहुँचे। स्वर्गलोक का अलौकिक सौंदर्य देख वह मंत्रमुग्ध हो गया और देवदूत से बोला, “ये कौन सा स्थान है?”
देवदूत ने उत्तर दिया “ये स्वर्गलोक है। तुम्हारे अच्छे कर्म के कारण तुम्हें स्वर्ग में स्थान प्राप्त हुआ है। अब से तुम यहीं रहोगे।” यह सुनकर लड़का खुश हो गया। देवदूत ने उसे वह घर दिखाया, जहाँ उसके रहने की व्यवस्था की गई थी। वह एक आलीशान घर था। इतना आलीशान घर उसने अपने जीवन में कभी नहीं देखा था।
देवदूत उसे घर के भीतर लेकर गया और एक-एक कर सारे कक्ष दिखाने लगा। सभी कक्ष बहुत सुंदर थे। अंत में वह उसे एक ऐसे कक्ष के पास लेकर गया, जिसके सामने “स्वप्न कक्ष” लिखा हुआ था। जब वे उस कक्ष के अंदर पहुँचे, तो लड़का यह देखकर दंग रह गया कि वहाँ बहुत सारी वस्तुओं के छोटे-छोटे प्रतिरूप रखे हुए थे।
ये वही वस्तुयें थीं, जिन्हें पाने के लिए उसने आजीवन मेहनत की थी, लेकिन हासिल नहीं कर पाया था। आलीशान घर, कार, उच्चाधिकारी का पद और ऐसी ही बहुत सी चीज़ें, जो उसके सपनों में ही रह गए थे। वह सोचने लगा कि इन चीज़ों को पाने के सपने मैंने धरती लोक में देखे थे, लेकिन वहाँ तो ये मुझे मिले नहीं। अब यहाँ इनके छोटे प्रतिरूप इस तरह क्यों रखे हुए हैं?
वह अपनी जिज्ञासा पर नियंत्रण नहीं रख पाया और पूछ बैठा, “ये सब यहाँ इस तरह इसके पीछे क्या कारण है?’ देवदूत ने उसे बताया, “मनुष्य अपने जीवन बहुत से सपने देखता है और उनके पूरा हो जाने की कामना करता है। लेकिन कुछ ही सपनों के प्रति वह गंभीर होता है और उन्हें पूरा करने का प्रयास करता है। ईश्वर और ब्रह्माण्ड मनुष्य के हर सपने पूरा करने की तैयारी करते है।
लेकिन कई बार असफ़लता प्राप्ति से हताश होकर और कई बार दृढ़ निश्चय की कमी के कारण मनुष्य उस क्षण प्रयास करना छोड़ देता है। जब उसके सपने पूरे होने वाले ही होते हैं। उसके वही अधूरे सपने यहाँ प्रतिरूप के रूप में रखे हुए है। तुम्हारे सपने भी यहाँ प्रतिरूप के रूप में रखे है।
तुमने अंत समय तक हार न मानी होती, तो उसे अपने जीवन में प्राप्त कर चुके होते।” लड़के को अपने जीवन काल में की गई गलती समझ आ गई। लेकिन मृत्यु पश्चात् अब वह कुछ नहीं कर सकता था।
Moral – किसी भी सपने को पूर्ण करने की दिशा में काम करने के पूर्व यह दृढ़ निश्चय कर लें। चाहे कितनी भी मुश्किलें क्यों न आये? चाहे कितनी बार भी असफ़लता का सामना क्यों न करना पड़े? अपने सपनों को पूरा करने की दिशा में तब तक प्रयास करते रहे, जब तब वे पूरे नहीं हो जाते।
5- हमेशा सीखते रहो प्रेरणादायक कहानी | बच्चों की कहानियां
एक बार गाँव के दो व्यक्तियों ने शहर जाकर पैसे कमाने का निर्णय लिया। शहर जाकर कुछ महीने इधर-उधर छोटा-मोटा काम कर दोनों ने कुछ पैसे जमा किये। फिर उन पैसों से अपना-अपना व्यवसाय प्रारंभ किया। दोनों का व्यवसाय चल पड़ा। दो साल में ही दोनों ने अच्छी ख़ासी तरक्की कर ली।
व्यवसाय को फलता-फूलता देख पहले व्यक्ति ने सोचा कि अब तो मेरे काम चल पड़ा है। अब तो मैं तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ता चला जाऊँगा। लेकिन उसकी सोच के विपरीत व्यापारिक उतार-चढ़ाव के कारण उसे उस साल अत्यधिक घाटा हुआ। अब तक आसमान में उड़ रहा वह व्यक्ति यथार्थ के धरातल पर आ गिरा।
वह उन कारणों को तलाशने लगा, जिनकी वजह से उसका व्यापार बाज़ार की मार नहीं सह पाया। सबने पहले उसने उस दूसरे व्यक्ति के व्यवसाय की स्थिति का पता लगाया, जिसने उसके साथ ही व्यापार आरंभ किया था। वह यह जानकर हैरान रह गया कि इस उतार-चढ़ाव और मंदी के दौर में भी उसका व्यवसाय मुनाफ़े में है।
उसने तुरंत उसके पास जाकर इसका कारण जानने का निर्णय लिया। अगले ही दिन वह दूसरे व्यक्ति के पास पहुँचा। दूसरे व्यक्ति ने उसका खूब आदर-सत्कार किया और उसके आने का कारण पूछा। तब पहला व्यक्ति बोला, “दोस्त! इस वर्ष मेरा व्यवसाय बाज़ार की मार नहीं झेल पाया। बहुत घाटा झेलना पड़ा। तुम भी तो इसी व्यवसाय में हो। तुमने ऐसा क्या किया कि इस उतार-चढ़ाव के दौर में भी तुमने मुनाफ़ा कमाया?”
यह बात सुन दूसरा व्यक्ति बोला, “भाई! मैं तो बस सीखता जा रहा हूँ, अपनी गलती से भी और साथ ही दूसरों की गलतियों से भी। जो समस्या सामने आती है, उसमें से भी सीख लेता हूँ। इसलिए जब दोबारा वैसी समस्या सामने आती है, तो उसका सामना अच्छे से कर पाता हूँ और उसके कारण मुझे नुकसान नहीं उठाना पड़ता। बस ये सीखने की प्रवृत्ति ही है, जो मुझे जीवन में आगे बढ़ाती जा रही है।”
दूसरे व्यक्ति की बात सुनकर पहले व्यक्ति को अपनी भूल का अहसास हुआ। सफ़लता के मद में वो अति-आत्मविश्वास से भर उठा था और सीखना छोड़ दिया था। वह यह प्रण कर वापस लौटा कि कभी सीखना नहीं छोड़ेगा। उसके बाद उसने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ता चला गया।
Moral – जीवन में कामयाब होना है, तो इसे पाठशाला मान हर पल सीखते रहिये। सीखने की ललक खुद में बनाये रखें, फिर कोई बदलाव, कोई उतार-चढ़ाव आपको आगे बढ़ने से नहीं रोक सकता।
6- जौहरी की मूर्खता शिक्षाप्रद कहानी | बच्चों की कहानी
एक गाँव में मेला लगा हुआ था। मेले में मनोरंजन के कई साधनों के अतिरिक्त श्रृंगार, सजावट और दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली वस्तुओं की अनेक दुकानें थी। शाम होते ही मेले की रौनक बढ़ जाती थी। एक शाम रोज़ की तरह मेला सजा हुआ था। महिला, पुरुष और बच्चे सभी मेले का आनंद उठा रही थी। दुकानों में अच्छी-ख़ासी भीड़ उमड़ी हुई थी।
उन्हीं दुकानों में से एक दुकान कांच से निर्मित वस्त्तुओं की थी, जिसमें कांच के बर्तन और गृह सज्जा की कई वस्तुएँ बिक रही थी। अन्य दुकानों की अपेक्षा उस दुकान में लोगों की भीड़ कुछ कम थी। एक जौहरी भी उस दिन मेले में घूम रहा था। घूमते-घूमते जब वह उस दुकान के पास से गुजरा, तो उसकी नज़र एक चमकते हुए कांच के टुकड़े पर अटक गई।
उसकी पारखी नज़र तुरंत ताड़ गई कि वह कोई साधारण कांच का टुकड़ा नहीं, बल्कि बेशकीमती हीरा है। वह समझ गया कि दुकानदार इस बात से अनभिज्ञ है। वह दुकान में गया और उस हीरे को उठाकर दुकानदार से उसकी कीमत पूछने लगा, “भाई, जरा इसकी कीमत तो बताना?’ दुकानदार बोला, “ये मात्र 20 रूपये का है।”
जौहरी लालची था। वह कम से कम कीमत में उस कीमती हीरे को हथियाने की फ़िराक में था। वह दुकानदार से मोल-भाव करने लगा, “नहीं भाई इतनी कीमत तो मैं नहीं दे सकता। मैं तुम्हें इसके 15 रूपये दे सकता हूँ। 15 रुपये में तुम मुझे ये दे सकते हो, तो दे दो।
दुकानदार उस कीमत पर राज़ी नहीं हुआ। उस समय दुकान में कोई ग्राहक नहीं था। जौहरी ने सोचा कि थोड़ी देर मेले में घूम-फिरकर वापस आता हूँ। हो सकता है, तब तक इसका मन बदल जाए और ये 15 रूपये में मुझे यह कीमती हीरा दे दे। यह सोच हीरा बिना खरीदे वह वहाँ से चला गया।
कुछ देर बाद जब वह पुनः उस दुकान में लौटा, तो हीरे को वहाँ नही पाया। उसने फ़ौरन दुकानदार से पूछा, “यहाँ जो कांच का टुकड़ा था, वो कहाँ गया?” दुकानदार ने उत्तर दिया “मैंने उसे 25 रूपये में बेच दिया।” जौहरी ने अपना सिर पीट लिया और बोला, “ये तुमने क्या किया? तुम बहुत बड़े मूर्ख हो। वह कोई कांच का टुकड़ा नहीं, बल्कि बेशकीमती हीरा था। मात्र 25 रूपये में तुमने उसे बेच दिया।”
दुकानदार ने उत्तर दिया “मूर्ख मैं नहीं तुम हो। मैं तो नहीं जानता था कि वह बेशकीमती हीरा है। पर तुम तो जानते थे। फिर भी तुम मुझसे मोल-भाव कर 5 रूपये बचाने में लगे रहे और हीरा बिना ख़रीदे ही दुकान से चले गए।” दुकानदार का उत्तर सुन जौहरी अपनी मूर्खता पर पछताने लगा और पछताते हुए खाली हाथ वापस लौट गया।
Moral – मूर्खता और लालच दोनों नुकसान का कारण है।
7- अबाबील और कौवे की कहानी (Bacchon Ki Kahaniyan)
जंगल में एक ऊँचे पेड़ पर एक अबाबील पक्षी रहता था। उसके पंख रंग-बिरंगे और सुंदर थे, जिस पर उसे बड़ा घमंड था। वह ख़ुद को दुनिया का सबसे सुंदर पक्षी समझता था। इस कारण हमेशा दूसरों को नीचा दिखाने की कोशिश करता रहता था।
एक दिन कहीं से एक काला कौवा आकर उस पेड़ की एक डाली पर बैठ गया, जहाँ अबाबील रहता था। अबाबील ने जैसे ही कौवे को देखा, तो अपनी नाक-भौं सिकोड़ते हुए कहने लगा, “सुनो! तुम कितने बदसूरत हो। पूरे के पूरे काले। तुम्हारे किसी भी पंख में कोई रंग नहीं है। मुझे देखो, मेरे रंग-बिरंगे पंखों को देखो, मैं कितना सुंदर हूँ।”
कौवे ने जब अबाबील की बात सुनी, तो बोला, “कह तो तुम ठीक रहे हो। मेरे पंख काले हैं, तुम्हारे पंखों जैसे रंग-बिरंगे नहीं। लेकिन ये मुझे उड़ने में मदद करते हैं।”
“वो तो मुझे भी करते हैं। देखो।” कहते हुए अबालील उड़कर कौवे के पास जा पहुँचा और अपने पंख पसारकर बैठ गया। उसके रंग-बिरंगे और सुंदर पंखों को देखकर कौवा मंत्र-मुग्ध हो गया। फिर अबाबील बोला “मान लो कि मेरे पंख तुमसे बेहतर हैं।”
फिर कौवा बोला “वाकई तुम्हारे पंख दिखने में मेरे पंखों से कहीं अधिक सुंदर हैं। लेकिन मेरे पंख ज्यादा बेहतर है क्योंकि ये हर मौसम में मेरे साथ रहते हैं और इनके कारण मौसम चाहे कैसा भी हो, मैं हमेशा उड़ पाता हूँ। लेकिन तुम ठंड के मौसम में उड़ नहीं पाते, क्योंकि तुम्हारे पंख झड़ जाते हैं। मेरे पंख जैसे भी हैं, वो मेरा साथ कभी नहीं छोड़ते।”
कौवे की बात सुनकर अबाबील का घमंड चूर-चूर हो गया।
Moral – दोस्ती करें, तो सीरत देखकर करें न कि सूरत देखकर, क्योंकि अच्छी सीरत का दोस्त अच्छे-बुरे हर वक़्त पर आपके साथ रहेगा और आपका साथ देगा। वहीं मौका-परस्त दोस्त अपना मतलब साधकर बुरे वक़्त में आपको छोड़कर चला जायेगा।
8- चतुर खरगोश की कहानी (Bacchon Ki Kahaniyan Acchi Acchi)
दो खरगोश अपने माँ के साथ एक सूंदर से गांव के हरे भरे मैदान में रहते थे। उन दो खरगोश के नाम थे चिंटू और मिंटू। चिंटू बहुत ही नटखट था, और पिंटू बिलकुल उसके अपोजिट बहुत ही शांति पूर्वे था। वे अपनी माँ के साथ एक पेड़ की जड़ के नीचे रहते थे। सुन मेरे बच्चों, तुम खेलने के लिए निचे खेत में जा सकते हो पर ध्यान रखना की तुम रतनलाल के खेत में नहीं जाओगे उन खरगोश के माँ ने उन्हें सतर्क कर दिया।
“आपके पिता की वहाँ एक दुर्घटना हुई थी। रतनलाल बहुत ही खतरनाक आदमी है, उनसे दूर रहने में ही हमारी समझदारी है।” माँ ने उन्हें हर बार की तरह चेतावनी दी।
“अब चलो और शरारत में न पड़ें। मैं बाहर जा रही हूँ।” ये सब बोल के खरगोश की माँ अपना बैग और छाता लेकर घर से बाहर निकली। मिंटू जो एक होशियार और समझदार खरगोश था। उसने बाजुवाले खेत में जाने का फैसला किया। चिंटू ने मिंटू के साथ जाने से इंकार कर दिया, और वह दौड़के रतनलाल के बगीचे में चला गया।
रतनलाल का बगीचा बहुत ही बड़ा, सूंदर और फल सब्जी से भरा हुआ था।रतनलाल के बगीचे में आसानी से खाने को मिलता था। चिंटू खरगोश ने बहुत ही सब्जी और फल खाया। बहुत ही खाने के बाद चिंटू के पेट में दर्द होने लगा। फिर भी वह उसकी परवा न करता लालच के कारन खाता ही चला गया।
चिंटू गाजर खाते वक्त आगे चला गया। तभी उसे रतनलाल पौधों को पानी देता दिख गया। वह सावधानी से पीछे जाने लगा। तभी रतनलाल की नज़र चिंटू खरगोश पर पड़ी। रतनलाल पानी का पाइप वही छोड़के चिंटू के पीछे गुस्से से भागने लगा। खरगोश अब बहुत ही डरा हुआ था। अब वह पूरे बगीचे में भाग रहा था। डर के कारन वह गेट के पीछे का रास्ता भी भूल गया था और डर के मारे भागते वक्त उसने अपने दोनों जुते भी खो दिए थे।
बिना जुते से वह और जोर से भागने लगा। चिंटू भगते हुए के रतनलाल की गेराज में जाके छूप गया। खरगोश बहुत देर से दिखाई न देने के कारन रतनलाल गुस्से से अंदर जाके छड़ी लेकर आया। रतनलाल बहुत ही निश्चित था कि वह खरगोश अपने ही बगीचे में छुपा हुआ है। वह बगीचे में ध्यान से देखने लगा। तभी चिंटू गलती से छींका, आवाज़ आने से रतनलाल मूड़ गया और आवाज़ की तरफ भागने लगा।
रतनलाल को आते देखकर चिंटू ने जल्दी से गेराज की खिड़की से कूद गया, जो की बहुत ही छोटा था, जिससे रतनलाल नहीं जा सका। अब रतनलाल बहुत ही थक गया था। उसकी उम्र के कारण रतनलाल को सांस लेने में तकलीफ हो रही थी और उसका शरीर थोड़ा बहुत कांप भी रहा था।
रतनलाल गेट पे पहरा दे कर वही पे बैठ गया। चिंटू को दूसरे गेट से बहार निकल के लिए रास्ता खुला था, पर उसे जाने के लिए रतनलाल के पास से जाना पड़ता था। पर अब उसके पास एक ही मौका था रतनलाल के पास से गुजर जाना और चिंटू ने वह मौका नहीं छोड़ा। रतनलाल को बड़ी मुश्किल से चकमा देकर चिंटू रोते हुए बगीचे से बहार निकल गया। आज चिंटू खरगोश ने अपनी जान बचा ली थी और सबसे महत्वपूर्ण सबक सीख लिया था।
Moral – हमें कभी भी किसी की भी चिकनी चुपड़ी बातों में नहीं आना चाहिए।
9- तीन मछलियाँ (Bacchon Ke Liye Kahani)
एक जलाशय में तीन मछलियाँ रहा करती थी अनागतविधाता, प्रत्युत्पन्नमति और यभ्दविष्य। तीनों के स्वभाव एक-दूसरे से भिन्न थे। अनागतविधाता संकट आने के पूर्व ही उसके समाधान में विश्वास रखती थी। प्रत्युत्पन्नमति की सोच थी कि संकट आने पर उसका कोई न कोई समाधान निकल ही आता है। यभ्दविष्य किस्मत के भरोसे रहने वालों में से थी। उसका मानना था कि जो किस्मत में लिखा है, वह तो होकर ही रहेगा। चाहे कितने ही प्रयत्न क्यों न कर लिए जायें, उसे टाला नहीं जा सकता।
तीनों मछलियाँ जिस जलाशय में रहती थी। वह मुख्य नदी से जुड़ा हुआ था। लेकिन घनी झाड़ियों से ढका होने के कारण सीधे दिखाई नहीं पड़ता था। यही कारण था कि वह अब तक मछुआरों की दृष्टि से बचा हुआ था। एक शाम मछुआरे नदी से मछलियाँ पकड़कर वापस लौट रहे थे। बहुत ही कम मछलियाँ हाथ आने के कारण वे उदास थे।
तभी उनकी दृष्टि मछलीखोर पक्षियों पर पड़ी, जो नदी से लगी झाड़ियों के पीछे से उड़ते चले आ रहे थे। उन मछलीखोर पक्षियों की चोंच में मछलियाँ दबी हुई थी। यह देख मछुआरों को समझते देर न लगी कि झाड़ियों के पीछे नदी से लगा हुआ कोई जलाशय है। वे झाड़ियों के पार जाकर जलाशय के पास पहुँच गए। वे बहुत ख़ुश थे।
एक मछुआरा बोला, “लगता है यह जलाशय मछलियों से भरा हुआ है। यहाँ से हम ढेर सारी मछलियाँ पकड़ पायेंगे।” “सही कह रहे हो भाई। लेकिन आज तो शाम घिर आई है। कल सुबह-सुबह आकर यहाँ पर अपना जाल बिछाते हैं।” दूसरे मछुआरे ने कहा, दूसरे दिन आने की योजना बनाकर मछुआरे वहाँ से चले गए।
मछुआरों की बातें अनागतविधाता ने सुन ली। वह तुरंत प्रत्युत्पन्नमति और यभ्दविष्य के पास पहुँची और बोली, “कल मछुआरे जाल डालने इस जलाशय में आ रहे हैं। यहाँ रहना अब ख़तरे से खाली नहीं रह गया है। हमें यथाशीघ्र यह स्थान छोड़ देना चाहिए। मैं तो तुरंत ही नहर से होती हुई नदी में जा रही हूँ। तुम लोग भी साथ चलो।”
अनागतविधाता की बात सुनकर प्रत्युत्पन्नमति बोली, “अभी ख़तरा आया कहाँ है? हो सकता है कि वो आये ही नहीं। जब तक ख़तरा सामने नहीं आएगा, मैं जलाशय छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी। हो सकता है कि मछुआरों को मछलियों से भरा कोई दूसरा जलाशय मिल जाये और वे यहाँ आने का इरादा छोड़ दें। यदि वे आ भी गए, तो ये भी संभव है कि मैं उनके जाल फंसू ही ना।”
यभ्दविष्य बोली, “किस्मत के आगे क्या भला किसकी चली है? मछुआरों को आना होगा तो आयेंगे और मुझे उनके जाल में फंसना होगा, तो मैं फंसूंगी ही। मेरे कुछ भी करने से किस्मत का लिखा थोड़ी बदल जाएगा।” अनागतविधाता ने अपनी योजना अनुसार वहाँ से प्रस्थान करना ही उचित समझा और वह तुरंत वहाँ से चली गई।प्रत्युत्पन्नमति और यभ्दविष्य जलाशय में ही रुकी रही।
अगले दिन सुबह मछुआरे जाल लेकर आये और जलाशय में जाल फेंक दिया। संकट सामने देख बचाव हेतु प्रत्युत्पन्नमति अपना दिमाग दौड़ाने लगी। उसने इधर-उधर देखा, लेकिन उसे कोई खोखली जगह नहीं मिली, जहाँ जाकर वह छुप सके। तभी उसे एक उदबिलाव की सड़ी हुई लाश पानी में तैरती हुई दिखाई पड़ी। वह उस लाश में घुस गई और उसकी सड़ांध अपने ऊपर लपेटकर बाहर आ गई।
थोड़ी देर बाद वह एक मछुआरे के जाल में फंस गई। मछुआरे ने जब जाल बाहर निकाला और सारी मछलियों को जाल से एक किनारे पर उलट दिया, तब प्रत्युत्पन्नमति सड़ांध लपेटे हुए मरी मछली की तरह जमीन पर पड़ी रही।उसमें कोई हलचल न देख मछुआरे ने उसे उठाकर सूंघा। उसके ऊपर से आ रही बदबू से उसने अनुमान लगाया कि ये अवश्य कई दिनों पहले मरी मछली है और उसने उसे पानी में फेंक दिया।
पानी में पहुँचते ही प्रत्युत्पन्नमति तैरकर सुरक्षित स्थान पर चली गई। इस तरह बुद्धि का प्रयोग कर वह बच गई। वहीं दूसरे मछुआरे के जाल में फंसी यभ्दविष्य कुछ किये बिना किस्मत के भरोसे रही और अन्य मछलियों के साथ दम तोड़ दिया।
Moral – किस्मत उसी का साथ देती है, जो खुद का साथ देते हैं। किस्मत के भरोसे रहकर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने वालों का विनाश निश्चित है।
10- शेर की दावत में बैल (Bacchon Ki Story)
एक बार जंगल के राजा शेर ने रात्रि को भोजन में बैल का मांस खाने की इच्छा से एक योजना बनाई। वह बैल से आग्रह करते हुए बोला। “दोस्त, तुम्हारे लिए मैंने एक भेड़ का शिकार किया है और आज रात तुम मेरे महल में शाही भोज के लिए आमंत्रित हो।” बैल ने उसका आमंत्रण स्वीकार कर लिया।
रात होने पर जब बैल वहाँ पहुँचा तो उसने देखा कि वहाँ बड़ी-बड़ी सींके लगी है और घड़ों में पानी उबल रहा है। लेकिन वहाँ कोई मृत भेड़ नहीं थी। एक भी शब्द कहे बिना वह वापस जाने लगा तो शेर खीजकर बोला, “मैंने तो तुम्हें बिना कोई नुकसान पहुँचाए भोजन के लिए बुलाया। लेकिन तुम बिना कोई कारण बताए ही जा रहे हो।
तब बैल ने उत्तर दिया, “मैंने यहाँ कोई मृत भेड़ नहीं देखी। इसका मतलब है कि तुमने भेड़ के बदले आज बैल का मांस खाने की पूरी तैयारी कर रखी थी।” यह कहकर बैल वहाँ से भाग गया।
Moral – हमें कभी भी किसी की भी चिकनी चुपड़ी बातों में नहीं आना चाहिए।
11- चालाक मुर्गे और गीदड़ की शिक्षाप्रद कहानी (Kahaniyan Bacchon Ki Kahaniyan)
एक गाँव में एक मुर्गा रहता था। वह रोज़ सुबह बांग देकर गाँव वालों को जगाया करता था। एक दिन एक गीदड़ कहीं से घूमता हुआ गाँव में आ गया। जब उसने मुर्गे को देखा, तो उसकी लार टपकने लगी। वह सोचने लगा – वाह! क्या शानदार मुर्गा है। अगर इसका मांस खाने को मिल जाये तो मज़ा आ जाये।
वह तरकीब सोचने लगता है, ताकि किसी तरह मुर्गे को दबोच कर पेट पूजा कर सके। उसने मुर्गे को बहला-फुसला कर अपने काबू में करने का निश्चय किया और उसके पास पहुँचकर बोला, “मित्र! मैं तुम्हारी आवाज़ सुनकर तुम्हारे पास आया हूँ। तुम्हारी आवाज़ बहुत ही सुरीली है। कानों में मिश्री घुल जाती है।
मन करता है, दिन-भर सुनता रहूँ। क्या तुम एक बार मुझे अपनी सुरीली आवाज़ सुनाओगे।” मुर्गे की कभी किसी ने इतनी प्रशंसा नहीं की थी। वह गीदड़ की बात सुनकर मुर्गा ख़ुशी से फूला नहीं समाया और उसे अपनी आवाज़ सुनाने के लिए ज़ोर-ज़ोर से “कूक-डू-कू” करने लगा।
गीदड़ इसी फ़िराक में था। उसके देखा कि मुर्गे का ध्यान उसकी ओर नहीं है। इसलिए अवसर पाकर उसने मुर्गे को अपने मुँह में दबा लिया और जंगल की ओर भागने लगा। जब वह जंगल की ओर भाग रहा था, उस समय गाँव वालों की दृष्टि उस पर पड़ गई। वे लाठी लेकर उसे मारने के लिए दौड़े। गीदड़ डर के मारे और तेजी से भागने लगा।
मुर्गा अब तक उसके मुँह में दबा था। तब तक उसने उसके चंगुल से बचकर निकलने का एक उपाय सोच लिया था। वह भागते हुए गीदड़ से बोला, “देखो गीदड़ भाई! ये गाँव वाले मेरे कारण तुम्हारा पीछा कर रहे हैं। वे तब तुम्हारा पीछा करना छोड़ेंगे, जब तुम उनसे कहोगे कि मैं तुम्हारा हूँ, उनका नहीं। ऐसा करो, तुम उन्हें बोल दो।”
गीदड़ मुर्गे की बातों में आ गया और पलटकर बोलने के लिए अपना मुँह खोल लिया। लेकिन जैसे ही उसने मुँह खोला, मुर्गा उड़ गया और गाँव वालों के पास चला गया। इस तरह अपनी चतुराई से उसने अपनी जान बचाई।
Moral – संकट के समय बुद्धिमानी से काम लेना चाहिए।
12 – कंजूस और उसका सोना (Kahani Bacchon Ki)
एक गाँव में एक अमीर जमींदार रहता था। वह जितना अमीर था, उतना ही कंजूस भी। अपने धन को सुरक्षित रखने का उसने एक अजीब तरीका निकाला था। वह धन से सोना खरीदता और फिर उस सोने को पिघलाकर उसके गोले बनाकर अपने एक खेत में एक पेड़ के नीचे गड्ढा खोदकर डाल देता था। रोज़ खेत जाना और गड्ढे को खोदकर सोने के गोलों की गिनती करना उसकी दिनचर्या का हिस्सा था।
इस तरह वह सुनिश्चित करता था कि उसका सोना सुरक्षित है। एक दिन एक चोर ने कंजूस आदमी को गड्ढे में से सोना निकालकर गिनते हुए देख लिया। वह छुपकर उसके जाने का इंतज़ार करने लगा। जैसे ही कंजूस आदमी गया। वह गड्ढे के पास पहुँचा और उसमें से सोना निकालकर भाग गया। अगले दिन जब कंजूस आदमी खेत में गड्ढे के पास पहुँचा। तो सारा सोना ना पाकर रोने-पीटने लगा।
उसके रोने की आवाज़ वहाँ से गुजरते एक राहगीर के कानों में पड़ी, तो वह रुक गया। उसने कंजूस आदमी से रोने का कारण पूछा, तो कंजूस आदमी बोला, “मैं लुट गया। बर्बाद हो गया। कोई मेरा सारा सोना लेकर भाग गया। अब मैं क्या करूंगा?” “सोना? किसने चुराया? कब चुराया?” राहगीर आश्चर्य में पड़ गया।
फिर कंजूस आदमी बिलखते हुए बोला “पता नहीं चोर ने कब इस गड्ढे को खोदा और सारा सोना लेकर नौ दो ग्यारह हो गया। मैं जब यहाँ पहुँचा, तो सारा सोना गायब था।” फिर राहगीर बोला “गड्ढे से सोना ले गया? तुम अपना सोना यहाँ इस गड्ढे में क्यों रखते हो? अपने घर पर क्यों नहीं रखते? वहाँ ज़रूरत पड़ने पर तुम उसका आसानी से उपयोग कर सकते हो।”
कंजूस आदमी बोला “मैं अपने सोने को कभी हाथ नहीं लगाता। मैं उसे सहेजकर रखता हूँ और हमेशा रखता, यदि वो चोर उसे चुराकर नहीं ले जाता।” यह बात सुनकर राहगीर ने जमीन से कुछ कंकड़ उठाये और उसे उस गड्ढे में डालकर बोला, “यदि ऐसी बात है, तो इन कंकडों को गड्ढे में डालकर गड्ढे को मिट्टी ढक दो और कल्पना करो कि यही तुम्हारा सोना है, क्योंकि इनमें और तुम्हारे सोने में कोई अंतर नहीं है।
ये भी किसी काम के नहीं और तुम्हारा सोना भी किसी काम का नहीं था। उस सोने का तुमने कभी कोई उपयोग ही नहीं किया, न ही करने वाले थे। उसका होना न होना बराबर था।”
Moral – जिस धन का कोई उपयोग न हो, उसकी कोई मोल नहीं।
13- सूअर और भेड़ की कहानी (Baccho Ki Kahani in Hindi)
रोज़ की तरह एक चरवाहा अपनी भेड़ों को घास के मैदान में चरा रहा था। तभी कहीं से एक मोटा सूअर वहाँ आ गया। जब चरवाहे की नज़र सूअर पर पड़ी, तो उसने उसे पकड़ लिया। जैसे ही चरवाहे ने सूअर को पकड़ा, वो तेज आवाज़ में चीखने लगा और ख़ुद को छुड़ाने का प्रयास करने लगा। लेकिन चरवाहे की पकड़ मजबूत थी।
उसने सूअर के सामने और पीछे के दोनों पैर रस्सी से बांध दिए और उसे अपने कंधे पर लटकाकर कसाई के पास जाने लगा। सूअर ज़ोर-ज़ोर से चीख रहा था और चरवाहा चला जा रहा था। मैदान में चर रही भेड़ें सूअर के इस व्यवहार पर बहुत चकित थीं। उनमें से एक भेड़ कुछ दूर तक चरवाहे के पीछे-पीछे गई और सूअर से बोली, “इस तरह चीखते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती?
चरवाहा रोज़ हममें से एक भेड़ को पकड़कर ले जाता है। लेकिन हम तो यूं नहीं चीखते।तुम तो बेकार में इतना उत्पात मचा रहे हो। शर्म करो।” भेड़ की बात पर सूअर को बहुत गुस्सा आया। वह और जोर से चीखते हुए बोला, “चुप रहो! चरवाहा जब तुम लोगों को पकड़कर ले जाता है, तो उसे बस तुम्हारा ऊन चाहिए होता है। लेकिन उसे मेरा मांस चाहिए। जब तुम्हारी जान पर बनेगी, तब बहादुरी दिखाना।”
Moral – जब ख़ुद की जान पर कोई ख़तरा नहीं होता, तब बड़ी-बड़ी बातें करना और बहादुरी दिखाना बहुत आसान होता है।
14- घमंडी बाघ और लकड़हारा की कहानी (Bacho Ki Kahaniyan)
एक समय की बात है, एक जंगल में एक बाघ रहता था। एक दिन, बाघ अपनी गुफा से बाहर निकल आया और शिकार की तलाश में चला गया। थोड़ा देर चलने के बाद बाघ ने एक हिरन की शिकार की। जैसे-जैसे बाघ अपने भोजन का आनंद ले रहा था, एक छोटी हड्डी उसके जबड़े में फंस गई।
उसने अपने पंजे से हड्डी बाहर निकालने कोशिश की, पर उस की सारी कोशिशे नाक़ामयाग रही। एक छोटी सी हड्डी ने इस शक्तिशाली बाघ की आँखों में आँसू ले आई। दिन बीतते गए और बाघ फसी हुइ हड्डी को बाहर नहीं निकाल सका। “मुझे यकीन है कि मैं भुखमरी से मर जाऊँगा,” बाघ ने सोचा। “मुझे इस हड्डी को बाहर निकालना है।” वह जानता था कि उसके गले से हड्डी को बहार नहीं निकला तो वह मर जायेगा।
लेकिन वह उस हड्डी को बहार निकलना नहीं जानता था। जैसे-जैसे दिन बीतते गए, बाघ कमजोर से कमजोर होता गया। उसे पता नहीं चल रहा था कि इस हड्डी का क्या करना है। वह बस अब मौत का इंतजार कर सकता था। फिर एक दिन जब बाघ बुरी तरह से एक पेड़ के नीचे पड़ा था। तो उसने एक लकड़हारा देखा। लकड़हारा ने ज़ख़्मी बाघ को देखकर उसके पास गया। “तुम ठीक हो? ये तुम मुँह खोल के क्यों बैठे हो?” लकड़हारा ने बाघ से पूछा।
“कुछ दिनों पहले मेरे दांतों के बीच में एक हड्डी फंस गई है। तब से मैं ठीक से खाना नहीं खा पा रहा हूँ। मुझे यकीन है कि मैं इस वजह से भुखमरी से मर जाऊँगा।” बाघ ने जवाब दिया।
“मैं केवल एक शर्त पर हड्डी निकालूँगा, तुम जब भी आज से कोई शिकार करोगे उस मे से मांस का छोटा टुकड़ा मुझे लाना होगा।” लकड़हारा ने बाघ से कहा। अब, बाघ हताश हो गया। लेकिन ज़िंदा रहने के लिए उसके पास और कोई तरीके नहीं थे। तो उसने लकड़हारा से सौदा पक्का किया।
तो लकड़हारा ने बाघ की बात मानकर उसके मुँह से हड्डी निकाली और बाघ को उसके दर्द से राहत मिली। जिस क्षण हड्डी निकली, बाघ शिकार की तलाश में चला गया। कुछ घंटों बाद, लकड़हारे ने बाघ को अकेले ही अपने भोजन का आनंद लेते हुए पाया।
“क्या आप अपने वादे के बारे में भूल गए हैं?” लकड़हारे ने गुस्से से पूछा।
“तुमको अपने आप को भाग्यशाली समझना चाहिए,” बाघ ने लकड़हारे से कहा। “मेरे मुंह में घुसने पर ही मैं तुम्हें आसानी से खा सकता था, लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। अब दूर जाओ यहा से।
लकड़हारा इस पर बहुत गुस्सा हो गया। उसने उसी वक्त हात में था लकड़ी का टुकड़ा बाघ के एक आंख में मारा।
“मेरी आँख, मेरी आँख! तुमने मेरी आंख में छेद कर दिया! मैं तुम्हे माफ़ नहीं करूँगा!” बाघ चिल्लाया।
जिस पर लकड़हारे ने उत्तर दिया “लेकिन तुम्हे अपने आप को भाग्यशाली समझना चाहिए, क्योंकि मैं आसानी से दूसरी आँख भी निकाल सकता था।”
Moral – हमें अपनी ताकत पर कभी घमंड नहीं करना चाहिए।
15 – दो मछलियों और एक मेंढक की कहानी (Chhote Bacchon Ki Kahani)
एक तालाब में शतबुद्धि (सौ बुद्धियों वाली) और सहस्त्रबुद्धि (हज़ार बुद्धियों वाली) नामक दो मछलियाँ रहा करती थी। उसी तालाब में एकबुद्धि नामक मेंढक भी रहता था। एक ही तालाब में रहने के कारण तीनों में अच्छी मित्रता थी। दोनों मछलियों शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि को अपनी बुद्धि पर बड़ा अभिमान था और वे अपनी बुद्धि का गुणगान करने से कभी चूकती नहीं थीं।
एकबुद्धि सदा चुपचाप उनकी बातें सुनता रहता। उसे पता था कि शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि के सामने उसकी बुद्धि कुछ नहीं है। एक शाम वे तीनों तालाब किनारे वार्तालाप कर रहे थे। तभी समीप के तालाब से मछलियाँ पकड़कर घर लौटते मछुआरों की बातें उनकी कानों में पड़ी। वे अगले दिन उस तालाब में जाल डालने की बात कर रहे थे, जिसमें शतबुद्धि, सहस्त्रबुद्धि और एकबुद्धि रहा करते थे।
यह बात ज्ञात होते ही तीनों ने उस तालाब रहने वाली मछलियों और जीव-जंतुओं की सभा बुलाई और मछुआरों की बातें उन्हें बताई। सभी चिंतित हो उठे और शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि से कोई उपाय निकालने का अनुरोध करने लगे। सहस्त्रबुद्धि सबको समझाते हुए बोली, “चिंता की कोई बात नहीं है। दुष्ट व्यक्ति की हर कामना पूरी नहीं होती। मुझे नहीं लगता वे आयेंगे। यदि आ भी गए, तो किसी न किसी उपाय से मैं सबके प्राणों की रक्षा कर लूँगी।”
शतबुद्धि ने भी सहस्त्रबुद्धि की बात का समर्थन करते हुए कहा, “डरना कायरों और बुद्धिहीनों का काम है। मछुआरों के कथन मात्र से हम अपना वर्षों का गृहस्थान छोड़कर प्रस्थान नहीं कर सकते। मेरी बुद्धि आखिर कब काम आयेगी? कल यदि मछुआरे आयेंगे, तो उनका सामना युक्तिपूर्ण रीति से कर लेंगे। इसलिए डर और चिंता का त्याग कर दें।”
तालाब में रहने वाली मछलियों और जीवों को शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि के द्वारा दिए आश्वासन पर विश्वास हो गया। लेकिन एकबुद्धि को इस संकट की घड़ी में पलायन करना उचित लगा। अंतिम बार वह सबको आगाह करते हुए बोला, “मेरी एकबुद्धित कहती है कि प्राणों की रक्षा करनी है, तो यह स्थान छोड़कर अन्यत्र जाना सही है। मैं तो जा रहा हूँ। आप लोगों को चलना है, तो मेरे साथ चलें।”
इतना कहकर वह वहाँ से दूसरे तालाब में चला गया। किसी ने उस पर विश्वास नहीं किया और शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि की बात मानकर उसी तालाब में रहे। अलगे दिन मछुआरे आये और तालाब में जाल डाल दिया। तालाब की सभी मछलियाँ उसमें फंस गई। शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि ने अपने बचाव के बहुत यत्न करे, लेकिन सब व्यर्थ रहा। मछुआरों के सामने उनकी कोई युक्ति नहीं चली और वे उनके बिछाए जाल में फंस ही गई।
जाल बाहर खींचने के बाद सभी मछलियाँ तड़प-तड़प कर मर गई। मछुआरे भी जाल को अपने कंधे पर लटकाकर वापस अपने घर के लिए निकल पड़े। शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि बड़ी मछलियाँ थीं। इसलिए मछुआरों ने उन्हें जाल से निकालकर अपने कंधे पर लटका लिया था।
जब एकबुद्धि ने दूसरे तालाब से उनकी ये दुर्दशा देखी, तो सोचने लगा अच्छा हुआ कि मैं एकबुद्धि हूँ और मैंने अपनी उस एक बुद्धि का उपयोग कर अपने प्राणों की रक्षा कर ली। शतबुद्धि या सहस्त्रबुद्धि होने की अपेक्षा एकबुद्धि होना ही अधिक व्यवहारिक है।
Moral – हमें बुद्धि का अहंकार नहीं करना चाहिए और एक व्यवहारिक बुद्धि सौ अव्यवहारिक बुद्धियों से कहीं बेहतर है।
16- गुलाब का घमंड (Bacchon Ki Kahaniyan Hindi Mein)
वसंत ऋतु में जंगल के बीचों-बीच लगा गुलाब का पौधा अपने फूलों की सुंदरता पर इठला रहा था। पास ही लगे चीड़ के कुछ पेड़ आपस में बातें कर रहे थे। एक चीड़ के पेड़ ने गुलाब को देखकर कहा, “गुलाब के फूल कितने सुंदर होते है। मुझे मलाल है कि मैं इसके जैसा सुंदर नहीं हूँ।”
“मित्र, उदास होने की आवश्यकता नहीं है। हर किसी के पास सब कुछ तो नहीं हो सकता।” दूसरे चीड़ के उसकी इस बात का उत्तर दिया। गुलाब ने उनकी बातें सुन ली और उसे अपनी सुंदरता पर और गुमान हो गया। वह बोला, “इस जंगल में सबसे सुंदर मैं ही हूँ।”
तभी सूरजमुखी के फूल ने उसकी इस बात पर आपत्ति जताते हुए कहा, “तुम ऐसा कैसे कह सकते हो? इन जंगल में बहुत सारे सुंदर फूल है और तुम बस उनमें से एक हो।” “लेकिन सब मुझे देख कर ही तारीफ़ करते हैं।” गुलाब ने इतराते हुए कहा, “देखो, इस नागफनी के पौधे को। ये कितना बदसूरत है। इस पर तो कांटे ही कांटे हैं। कोई इसकी तारीफ़ नहीं करता।”
“ये तुम किस तरह की बात कर रही हो।” अबकी बार चीड़ का पेड़ बोला, “तुममें भी तो कांटे है।” लेकिन फिर भी तुम सुंदर हो।”
गुलाब को इस बात पर गुस्सा आ गया, “तुम्हें तो सुंदरता का मतलब ही नहीं पता। तुम इस तरह मेरे कांटों और उस नागफनी के कांटों की तुलना नहीं कर सकते। हममें बहुत फ़र्क है। मैं सुंदर हूँ और वो नहीं।”
“तुममें घमंड चढ़ गया है गुलाब।” इतना कहकर चीड़ के पेड़ ने अपनी डालियों दूसरी ओर झुका ली। इन सबके बीच नागफनी का पौधा चुपचाप रहा।” लेकिन गुलाब ने गुस्से में अपनी जड़े नागफनी के पौधे से दूर हटाने की कोशिश की। लेकिन ऐसा संभव नहीं था।
कुछ देर प्रयास करने के बाद गुलाब ने चिढ़कर नागफनी के पौधे से कहा, “तुम एक निरर्थक पौधे हो। तुममें न सुंदरता है, न ही तुम किसी काम के हो। मुझे दुःख है कि मुझे तुम्हारे पास रहना पड़ रहा है।”
गुलाब की बात सुनकर नागफनी को दुःख हुआ और वह बोला, “भगवान ने किसी को भी निरर्थक जीवन नहीं दिया है।” गुलाब ने उसकी बात अनसुनी कर दी। मौसम बदला और वसंत ऋतु चली गई। धूप की तपिश बढ़ने लगी और पेड़-पौधे मुरझाने लगे। गुलाब भी मुरझाने लगा।
एक दिन गुलाब ने देखा कि एक चिड़िया नागफनी के पौधे पर चोंच गड़ाकर बैठी है। कुछ देर बाद वह चिड़िया वहाँ से उड़ गई। वह चिड़िया ताज़गी से भरी लग रही थी। गुलाब को ये बात समझ नहीं आई कि वह चिड़िया नागफनी पर बैठकर क्या कर रही थी?
उसने चीड़ के पेड़ से पूछा “ये चिड़िया क्या कर रही थी?”
चीड़ के पेड़ ने कहा, “ये चिड़िया नागफनी के पौधे से पानी ले रही है।”
“ओह, लेकिन क्या इसके चोंच गड़ाने से नागफनी को दर्द नहीं हुआ होगा।” गुलाब ने पूछा।
“अवश्य हुआ होगा, लेकिन दयालु नागफनी चिड़िया को तकलीफ़ में नहीं देख सकता था।” चीड़ के पेड़ ने उत्तर दिया.
“ओह तो इस गर्मी में नागफनी के पास पानी है। मैं तो पानी के बिना सूख रहा हूँ।” गुलाब उदास हो गया।
“तुम नागफनी से मदद क्यों नहीं मांगते? वह अवश्य तुम्हारी मदद करेगा। चिड़िया अपनी चोंच में भरकर तुम्हारे पास ले आएगी।” चीड़ के पेड़ ने सलाह दी।
गुलाब नागफनी से कैसे मदद माँगता? उसने तो अपनी सुंदरता के घमंड में उसे बहुत बुरा-भला कहा था। लेकिन तेज धूप में अपना जीवन बचाने के लिए आखिरकार एक दिन उसने नागफनी से मदद मांग ही ली।
नागफनी दयालु था। वह मदद के लिए फ़ौरन राज़ी हो गया। चिड़िया भी मदद को आगे आई। उसने नागफनी से पानी चूसा और अपनी चोंच में भरकर गुलाब के पौधे की जड़ों में डाल दिया। गुलाब का पौधा फिर से तरोताज़ा हो गया। गुलाब को समझ आ गया था कि किसी को देखकर उसके बारे में राय नहीं बनानी चाहिए। उसने नागफनी से माफ़ी मांग ली।
Moral – किसी की शक्ल देखकर कोई राय नहीं बनानी चाहिए। इंसान की बाहरी सुंदरता नहीं, बल्कि आंतरिक सुंदरता मायने रखती है।
17 – संगीतमय गधा (Bacchon Ki Hindi Kahani)
गाँव में रहने वाले एक धोबी के पास उद्धत नामक एक गधा था। धोबी गधे से काम तो दिन भर लेता, लेकिन खाने को कुछ नहीं देता था। हाँ, रात्रि के पहर वह उसे खुला अवश्य छोड़ देता था। ताकि इधर-उधर घूमकर वह कुछ खा सके। गधा रात भर खाने की तलाश में भटकता रहता और धोबी की मार के डर से सुबह-सुबह घर वापस आ जाया करता था।
एक रात खाने के लिए भटकते-भटकते गधे की भेंट एक सियार से हो गई। सियार ने गधे से पूछा, “मित्र! इतनी रात गए कहाँ भटक रहे हो?” सियार के इस प्रश्न पर गधा उदास हो गया। उसने सियार को अपने व्यथा सुनाई, “मित्र! मैं दिन भर अपनी पीठ पर कपड़े लादकर घूमता हूँ। दिन भर की मेहनत के बाद भी धोबी मुझे खाने को कुछ नहीं देता। इसलिए मैं रात में खाने की तलाश में निकलता हूँ। आज मेरी किस्मत ख़राब है।
मुझे खाने को कुछ भी नसीब नहीं हुआ। मैं इस जीवन से तंग आ चुका हूँ।” गधे की व्यथा सुनकर सियार को तरस आ गया। वह उसे सब्जियों के एक खेत में ले गया। ढेर सारी सब्जियाँ देखकर गधा बहुत ख़ुश हुआ। उसने वहाँ पेट भर कर सब्जियाँ खाई और सियार को धन्यवाद देकर वापस धोबी के पास आ गया।
उस दिन के बाद से गधा और सियार रात में सब्जियों के उस खेत में मिलने लगे। गधा छककर ककड़ी, गोभी, मूली, शलजम जैसी कई सब्जियों का स्वाद लेता। धीरे-धीरे उसका शरीर भरने लगा और वह मोटा-ताज़ा हो गया। अब वह अपना दुःख भूलकर मज़े में रहने लगा।
एक रात पेट भर सब्जियाँ खाने के बाद गधे मदमस्त हो गया। वह स्वयं को संगीत का बहुत बड़ा ज्ञाता समझता था। उसका मन गाना गाने मचल उठा। उसने सियार से कहा, “मित्र! आज मैं बहुत ख़ुश हूँ। इस खुशी को मैं गाना गाकर व्यक्त करना चाहता हूँ। तुम बताओ कि मैं कौन सा आलाप लूं?”
गधे की बात सुनकर सियार बोला, “मित्र! क्या तुम भूल गए कि हम यहाँ चोरी-छुपे घुसे हैं। तुम्हारी आवाज़ बहुत कर्कश है। यह आवाज़ खेत के रखवाले ने सुन ली और वह यहाँ आ गया, तो हमारी खैर नहीं। बेमौत मारे जायेंगे। मेरी बात मानो, यहाँ से चलो।”
गधे को सियार की बात बुरी लग गई। वह मुँह बनाकर बोला, “तुम जंगल में रहने वाले जंगली हो। तुम्हें संगीत का क्या ज्ञान? मैं संगीत के सातों सुरों का ज्ञाता हूँ। तुम अज्ञानी मेरी आवाज़ को कर्कश कैसे कह सकते हो? मैं अभी सिद्ध करता हूँ कि मेरी आवाज़ कितनी मधुर है।”
सियार समझ गया कि गधे को समझाना असंभव है। वह बोला, “मुझे क्षमा कर दो मित्र। मैं तुम्हारे संगीत के ज्ञान को समझ नहीं पाया। तुम यहाँ गाना गाओ। मैं बाहर खड़ा होकर रखवाली करता हूँ। ख़तरा भांपकर मैं तुम्हें आगाह कर दूँगा।”
इतना कहकर सियार बाहर जाकर एक पेड़ के पीछे छुप गया। गधा खेत के बीचों-बीच खड़ा होकर अपनी कर्कश आवाज़ में रेंकने लगा। उसके रेंकने की आवाज़ जब खेत के रखवाले के कानों में पड़ी, तो वह भागा-भागा खेत की ओर आने लगा। सियार ने जब उसे खेत की ओर आते देखा, तो गधे को चेताने का प्रयास किया।
लेकिन रेंकने में मस्त गधे ने उस ओर ध्यान ही नहीं दिया। सियार क्या करता? वह अपनी जान बचाकर वहाँ से भाग गया। इधर खेत के रखवाले ने जब गधे को अपने खेत में रेंकते हुए देखा, तो उसे दबोचकर उसकी जमकर धुनाई की। गधे के संगीत का भूत उतर गया और वह पछताने लगा कि उसने अपने मित्र सियार की बात क्यों नहीं मानी।
Moral – अपने अभिमान में मित्र के उचित परामर्श को न मानना संकट को बुलावा देना है।
18- बंदर और डॉल्फिन की कहानी (Bacho Ki Kahaniya)
एक बार कुछ समुद्री नाविक एक बड़े जहाज में समुद्री यात्रा पर निकले। उनमें से एक नाविक के पास एक पालतू बंदर था। उसने उसे भी अपने साथ जहाज पर रख लिया। यात्रा प्रारंभ हुई. जहाज कुछ दिन की यात्रा के बाद समुद्र के बीचों-बीच पहुँच गया। गंतव्य तक पहुँचने के लिए नाविकों को अभी भी कई दिनों की यात्रा करनी थी। इतने दिनों तक मौसम नाविकों के लिए अच्छा रहा था।
लेकिन एक दिन समुद्र में भयंकर तूफ़ान आ गया। तूफ़ान इतना तेज था कि नाविकों का जहाज टूट गया। नाविकों के जहाज को बचाने की बहुत कोशिश की, लेकिन अंततः जहाज पलट गया। नाविक अपनी जान बचाने के लिए समुद्र में तैरने लगे। बंदर भी पानी में जा गिरा था। उसे तैरना नहीं आता था। वह डूबने लगा और उसे अपनी मौत सामने नज़र आने लगी। वह अपनी जान बचने के लिए चीख-पुकार मचाने लगा।
उसी समय एक डॉल्फिन वहाँ से गुजरी। उसने बंदर को डूबते हुए देखा, तो उसके पास गई और उसे अपनी पीठ में बिठा लिया। वह बंदर को लेकर एक द्वीप की ओर तैरने लगी। द्वीप पर पहुँचकर डॉल्फिन ने बंदर को अपनी पीठ से उतारा। बंदर की जान में जान आई। डॉल्फिन ने बंदर से पूछा, “क्या तुम इस स्थान को जानते हो?”
“हाँ बिल्कुल, यहाँ का राजा तो मेरा बहुत अच्छा मित्र है और तुम जानती हो कि मैं भी एक राजकुमार हूँ।” बंदर की आदत बढ़ा-चढ़ाकर बात करने के थी। वह डॉल्फिन के सामने बड़ी-बड़ी बातें करने लगा। डॉल्फिन समझ गई कि बंदर अपनी शान बघारने के लिए झूठ बोल रहा है, क्योंकि वह एक निर्जन द्वीप था, जहाँ कोई भी नहीं रहता था। वह बंदर की बात का उत्तर देती हुई बोली, “ओह! तो तुम एक राजकुमार हो। बहुत अच्छी बात है।
लेकिन क्या तुम्हें पता है कि बहुत जल्द तुम इस द्वीप के राजा बनने वाले हो।” बंदर ने आश्चर्य से पूछा “राजा और मैं? कैसे?” “वो इसलिए कि तुम द्वीप पर एकलौते प्राणी हो। इसलिए बड़े आराम से यहाँ के राजा बन सकते हो। मैं जा रही हूँ। अब तुम अपना राज-पाट संभालो।” इतना कहकर डॉल्फिन तैरकर वहाँ से दूर जाने लगी। बंदर पुकारता रह गया और उसने झूठ और शेखी से नाराज़ डॉल्फिन उसे वहीं छोड़कर चली गई।
Moral – व्यर्थ की शेखी बघारना मुसीबत को बुलावा देना है।
19 – नीला सियार की कहानी (Bacho Ki Kahani)
चंडरव नामक एक भूखा सियार भोजन की तलाश में भटकता हुआ जंगल के निकट स्थित गाँव में चला गया। गाँव की गलियों में घूमते हुए उसे कुछ कुत्तों के देखा, तो उस पर टूट पड़े। किसी तरह जान बचाकर चंडरव वहाँ से भागा और एक मकान में घुस गया। वह मकान एक धोबी का था। मकान के एक कोने में बड़ा सा ड्रम रखा हुआ था। चंडरव उसमें छुप कर बैठ गया। वह रात भर वहीं छुपा रहा।
सुबह होने तक कुत्ते वहाँ से जा चुके थे। चंडरव ड्रम से निकल कर जंगल की ओर गया। उसे बड़े ज़ोरों की प्यास लगी थी। वह पानी पीने नदी किनारे गया, तो पानी में अपनी परछाई देख चौंक गया। उसका रंग नीला हो चुका था।रात में वह जिस ड्रम में छुपकर बैठा था, उसमें धोबी ने नील घोला हुआ था। उस नील का रंग चंडरव के शरीर पर चढ़ गया था।
पानी पीकर जब वह जंगल में पहुँचा, तो दूसरे जानवर उसे देख डर गए। नीले रंग का विचित्र जानवर उन्होंने कभी नहीं देखा था। वे डर के मारे भागने लगे। चंडरव ने जानवरों को भयभीत देखा, तो बड़ा खुश हुआ। उसके दिमाग में जानवरों को मूर्ख बनाकर जंगल का राजा बनने का विचार सोचा।
उसने भागते हुए जानवरों को रोका और उन्हें अपने पास बुलाकर बोला, “मित्रों, मुझसे मत डरों। मैं ब्रह्मा जी का दूत हूँ। उन्होंने मुझे तुम लोगों की रक्षा के लिए भेजा है। इस जंगल का कोई राजा नहीं है। अब से मैं तुम्हारा राजा हूँ। तुम लोगों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी अब मेरी है। तुम मेरे राज में आनंद से रहो।”
अब चंडरव के मजे हो गए। दिन भर वह छोटे जानवरों से अपनी सेवा करवाता। हाथी की सवारी कर जंगल में घूमता। शेर, चीते और भेड़िये उसके लिए शिकार कर लाते। वह छककर उसका भक्षण करता और बचा हुआ मांस उन्हें दे देता। दिन बड़े ही शांतिपूर्ण रीति से गुजर रहे थे। लेकिन झूठ आखिर कितने दिन छुपता? एक न एक दिन असलियत बाहर आनी ही थी।
एक सुबह चंडरव सोकर उठा और अपनी मांद से निकला। अचानक उसे कहीं दूर से सियारों की हुआ-हुआ की आवाज़ सुनाई पड़ी। चंडरव आखिर था तो सियार ही। वह भूल गया कि उसने अन्य जानवरों के सामने ब्रम्हा के भेजे दूत होने का नाटक किया है और वह भी मदमस्त होकर हुआ-हुआ चिल्लाने लगा।
जब दूसरे जानवरों ने उसकी आवाज़ सुनी, तो समझ गए कि वास्तव में वह एक सियार है और उन्हें मूर्ख बनाकर उनका राजा बना बैठा है। सब उसे मारने के लिए उसके पीछे दौड़े। चंडरव ने भागने का प्रयास किया, लेकिन शेर-चीते के पंजों से बच ना सका और मारा गया।
Moral – झूठ की उम्र लंबी नहीं होती। जब वह खुलता है, तो उसका दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है।
20- मेंढकों की दौड़ (Chhote Bacchon Ki Kahaniyan)
एक सरोवर में बहुत सारे मेंढक रहते थे। सरोवर के बीचों -बीच दो बहुत पुराने लकड़ी के खम्बे लगे हुए थे, जिस पर मछुआरे अपने जाल लगा देते थे। उसमे से एक खम्भा काफी ऊँचा था और उसकी सतह भी बिलकुल चिकनी थी। एक दिन मेंढकों के दिमाग में आया कि क्यों ना एक रेस करवाई जाए। रेस में भाग लेने वाली प्रतियोगीयों को सबसे ऊँची वाले खम्भे पर चढ़ना होगा और जो सबसे पहले एक ऊपर पहुँच जाएगा वही विजेता माना जाएगा।
रेस का दिन आ पहुँचा, चारो तरफ बहुत भीड़ थी। आस -पास के इलाकों से भी कई मेंढक इस रेस में हिस्सा लेने पहुचे। हर तरफ शोर ही शोर था। रेस शुरू हुई। लेकिन खम्भे को देखकर भीड़ में एकत्र हुए किसी भी मेंढक को ये यकीन नहीं हुआ कि कोई भी मेंढक ऊपर तक पहुँच पायेगा। हर तरफ यही सुनाई देता था, अरे ये बहुत कठिन है। वो कभी भी ये रेस पूरी नहीं कर पाएंगे।
सफलता का तो कोई सवाल ही नहीं, इतने ऊंची खम्भे पर चढ़ा ही नहीं जा सकता और यही हो भी रहा था। जो भी मेंढक कोशिश करता, वो थोडा ऊपर जाकर नीचे गिर जाता। कई मेंढक चार-पांच बार गिरने के बावजूद अपने प्रयास में लगे हुए थे। पर भीड़ तो अभी भी चिल्लाये जा रही थी, “ये नहीं हो सकता, असंभव” और वो उत्साहित मेंढक भी ये सुन-सुनकर हताश हो गए और अपना प्रयास छोड़ दिया।
लेकिन उन्ही मेंढकों के बीच एक छोटा सा मेंढक था, जो बार-बार गिरने पर भी उसी जोश के साथ ऊपर चढ़ने में लगा हुआ था। वो लगातार ऊपर की ओर बढ़ता रहा और अंततः वह खम्भे के ऊपर पहुँच गया और इस रेस का विजेता बना। उसकी जीत पर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ, सभी मेंढक उसे घेर कर खड़े हो गए और पूछने लगे।
“तुमने ये असंभव काम कैसे कर दिखाया। भला तुम्हे अपना लक्ष्य प्राप्त करने की शक्ति कहाँ से मिली, ज़रा हमें भी तो बताओ कि तुमने ये कैसे किया?” तभी पीछे से एक आवाज़ आई, “अरे उससे क्या पूछते हो, उसको सुनाई नहीं देता, वो तो बहरा है।”
Moral – कौन क्या कहता है उसपे ध्यान मत दो। हमेशा अपने काबीलियत पर विश्वास करो।
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